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'अच्छन अकच्छ, समरत्थ गणनत्थ । पतहत्थ न समत्थ, दसमच्छ सुत मच्छरन ।। सद्दघन नद्दहनन नद्द अनहद्द, बल सहल विरह। अनवद्द जस गद्दगन मद्दलन नद्दन मरद्दन । गरद्द कर रद्द दर हद्द दलबद्दल मरुदलन । ध्यान समरत्थ जनऋच्छ जन अच्छ। मनदच्छ जयलच्छ गणनाथ जयसूरिगन ।। इसी प्रवाह में श्रीमद् की वाणी-महिमा 'अमृतछन्द' में वर्णित है"आई आद्य अरिहन्त के, प्रगटी वदन सुवट्ट । वाणीविरचित विश्व में, गणधर ज्ञानी विघट्ट ।। गणधर ज्ञानी विधट्ट, अच्छविछट्ट, सुणेसविठट्ट, मिले सिवसट्ट
निक्षेप निपट्ट, नयति नवट्ट, चनक्कयचट्टन्यायनिघट्ट, पढे सहु पट्ट, जडागिरजट्टनवतत सुभट्ट, मिच्छा करे डट्ट, थकिधरवट्ट
चलावइ अट्ट, राजेन्द्र सुझट्ट, सूरिराज सुवट्ट ।। आई आद्य अरिहन्त के प्रगटी वदन सुवट्ट ।
गुरुदेव की प्रभावक वाणी का निदर्शन उक्त डिंगल-मिश्रित पद्य में कविवर प्रमोदरुचि ने विलक्षण रूप में किया है, जो आपके भाषा-भाव-वैभव और शब्दऐश्वर्य का सन्तुलित प्रतिनिधित्व करता है।
श्रीमद् के प्रत्येक धर्म-व्यापार के प्रति कविवर में अपार श्रद्धा थी। वे श्रीमद् के पुनीत चरणों में स्वयं को समर्पित कर पूर्ण आश्वस्त थे। ऐसे आदर्श मुनि-जीवन में अपना कालयापन देख वे विपुल धन्यता का अनुभव करते थे। सम्यक्त्व और सांस्कृतिक युगान्तर के लिए श्रीमद् ने जो कदम उठाये थे, कविवर का मन उन पर मुग्ध था। परम्परा से मिली धार्मिक विकृतियों और कुप्रथाओं, मिथ्यात्व और पाखण्ड के निरसन में श्रीमद् ने आत्मनिरीक्षण करते हुए परिशुद्धि का जो शंखनाद किया था, प्रमोदरुचिजी ने उसे प्रत्यक्ष देखा था। कवि का मन क्रान्ति की इस चेतना से पुलकित था। उन्हें लगा था जैसे हठाग्रह, पाखण्ड, पोंगापन्थ और अन्धे ढकोसलों का जमाना बीत गया है, और श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर के रूप में धर्म का एक नवसूर्योदय हुआ है। समाज-सुधार के अभियान में श्रीमद् ने अपूर्व शूरता का परिचय दिया
'ममता नहिं को गच्छ की सुविहित सो हम साधु । पंचांगी भाषी भली, लहे मग लीन अगाधु ।। लहे मग लीन अगाधु, पूर्व-प्राचीन परक्खी। आधुनिक जे उक्त जुत, सुत्त न विसम सरक्खी ।।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/५३
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