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पीरहरै षट काय कृपानिधि, भाव उभै धर संजम नीको। बाहिर-अन्तर एक बराबर, पीर हरै भव फेरज नीको।। आप तरै पर तारक जंगम है उदधि तरणीवर नीको।
सूरविजय राजेन्द्र यतिसम, संपइ और न गुरु अवनीको ।। श्रीमद् में आदर्श मुन्युपम समग्र गुणों का समवेत योग पाकर ही कविवर ने श्रीमद् राजेन्द्रसूरि से ही दीक्षोपसंपद् स्वीकार की थी। यति-दीक्षा के उपरान्त वे किसी योग्य गुरु की तलाश में अविश्रान्त प्रयत्नशील रहे थे।
दीक्षोपसंपद् ग्रहण करने के पश्चात् कविवर को श्रीमद् की सेवा का पर्याप्त अवसर मिला था। मरुधर की ओर विहार करने से पहले १८७३ ई. तक वे श्रीमद् के साथ छाया की भाँति रहे। १८७१ ई. में श्रीमद् ने मांगीतुंगी में अत्मोन्नति के निमित्त छह माह की कठोर तप-आराधना की थी। उस वर्ष कविवर ने श्रीमद् की अतीव भक्ति की, वे निरन्तर उनकी छत्रछाया में रहे तथा ज्ञान, ध्यान और विशुद्ध मुनिचर्या द्वारा आत्मोन्नति की परम साधना का अमूल्य मार्गदर्शन लेते रहे। श्रीमद् की निश्रा में उन्हें विशिष्ट आत्मतोष था। १८७९ ई. का वर्षावास श्रीमद् के साथ न होने के कारण उनमें श्रीमद् की दर्शन-उत्कण्ठा और विह्वलता बनी रही। धर्म-वात्सल्य की यह विकलता अनेक साधक, शिष्यों में प्रायः देखी गयी है; यथा--
'एह गुरु किम बीसरै, जहसु धर्मसनेह । रात-दिवस मन सांभरे, जिम पपइया मेह ।। सद्गुरु जाणी आपसुं, मांड्यो धर्मसनेह । अवरन को स्वप्नान्तरे, नवि धारुं ससनेह ।।
मास वरस ने दिन सफल, घडीज लेखे होय। श्री गुरुनाथ मेलावडो, जिणवला अम होय ॥ धन्न दिवस ने धन घड़ी, धन वेला धन मास।
प्रभु-वाणी अम सांभलां बसी तुमारे पास ।। स्नेह भलो पंखेरुआँ, उड़ने जाय मिलंत । माणस तो परबस हुआ, गुरुवाणी न लहंत ॥
कविवर में कई भाषाओं में काव्य-रचना की क्षमता थी। छन्द-अलंकार इत्यादि काव्यांगों पर भी उनका अच्छा अधिकार था। मेवाड़ के राजवंशों के सम्पर्क में रहने के कारण उन्हें दरबारी सामन्तों और राज्याश्रयी कवियों की भाँति डिंगल आदि प्राचीन भाषाओं का गहरा ज्ञान था।
डिंगल भाषा के ओजस्वी प्रयोग का एक उदाहरण श्रीमद् के साहस वर्णन में मिलता है। कविवर ने “कमलछन्द" के माध्यम से यह "हिम्मत-वर्णन" किया है
तीर्थंकर : जून १९७५/५२
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