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________________ सागर समता के सही, उदधि जिसा गंभीर । अडग मेरु जिम आचरहिं, पंचमहाव्रत धीर ।। अप्रमत्त विचरे दुनि, भारंड परे भविकाज । निरलेपी-निरलालची, पय कमलोपम आज ।। कविवर ने श्रीमद् के साथ रहते हुए जिस गुण-वैशिष्ट्य का अनुभव किया, उसकी उन्होंने अपने “विनतिपत्र" में बड़ी काव्योचित विवृति की है। इस दृष्टि से "विनतिपत्र" एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो श्रीमद् के महान् व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने के साथ ही उनकी समकालीन सांस्कृतिक स्थितियों का भी विश्वसनीय विवरण प्रस्तुत करता है। “विनतिपत्र' में कविवर ने श्रीमद् से कृपा-पत्र की अपेक्षा की है, लेकिन सम्यक् मुनि-मर्यादा में; उन्होंने लिखा है . "कृपापत्र मुनिराज के देने की नहीं रीत।। अनुमोदन प्रभु राखिने, उवरासो समचित ।। कृपा महिर भवि जीव पै, राखो धर्म संनेह । तेहथी जादा राखसो, जिम भुवि-शस्य सुमेह ।। यद्यपि साध्वाचार में परस्पर पत्र-लेखन पहले निषिद्ध था तथापि तब भी क्षमापनार्थ ऐसे “विनतिपत्र" अपने श्रद्धास्पद-गच्छनायक को देने की रीत थी। ये विनतिपत्र खूब सजावट के साथ लिखे जाते थे। इन्हें तैयार करने में प्रचुर चित्रकारीयुक्त शोभन प्रसंग-चित्र भी अंकित किये जाते थे। स्थानीय विवरण, संघ-समुदाय, धर्मक्षेत्र, ऐतिहासिक विशेषताएँ, साहित्यिक एवं धार्मिक गतिविधियों के ब्यौरे इन विनतिपत्रों में समाविष्ट होते थे। कई संग्रहालयों में इस तरह के विनतिपत्र उपलब्ध हैं, जो अध्ययन-अनुसंधान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, और जिनका विशद अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। कविवर प्रमोदरुचि के “विनतिपत्र" को भी व्यवस्थित पाठालोचन और सम्पादन के साथ प्रकाशित किये जाने की आवश्यकता है। ___ कविवर के “विनतिपत्र" में अनेक उपयोगी विषयों का समावेश है। साध्वाचार के पगाम सज्झाय, गौचरी के नियम, दिनचर्या, समता, हिम्मत, विहार इत्यादि अनेक विषयों का इसमें उल्लेख है। गच्छाधिप और उसके आज्ञानुवति मुनिगण के पारस्परिक व्यवहार-सम्बन्धों का भी विवरण इसमें है। इस सबके उपरान्त कठोर, अविचल मुनिचर्या में निरत एक सहृदय कवि के सरस कवित्व की चन्दनसुरभि की गमक भी इसमें है। श्रीमद् के विषय में प्रमोदरुचि लिखते हैं 'पंकज मध्य निगढ़ रह यो अलि चाहे दिवाकर देखनकुं। मेघ-मयूर मराल सुवांछित, पद्म-सरोवर सेवनकुं। सम्यग् दृष्टि सुदृष्टि थिरादिक, ध्यावहि व्रत सुलेवनकू। मुनिनाथ राजेन्द्र गणाधिप के, सहुसंघ चहे पय सेवनकुं। श्रीमद् सजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/५१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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