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________________ श्रीमद् अपने आपमें सुदीर्घ काल तक चिन्तनशील रहे और राग-त्याग के भगीरथ कार्य में स्वयं को त्रिकरण त्रियोग से लगाते रहे । उनका प्रत्येक क्षण, प्रत्येक पल उसी दिशा में व्यतीत हुआ जहाँ से उन्हें स्वपक्ष का समर्थन मिले एवं परपक्ष से निवृत्ति । श्रीमद् की त्यागवृत्ति ने ही उन्हें निर्माता बना दिया और उन्होंने निर्माण भी किया। उनका निर्माण स्वपक्ष ( आत्मभावपक्ष ) का निरूपक एवं परपक्ष का निरसनकारक रहा । वे चाहते थे जिनशासन - जिनवाणी के अनुरूप स्व-पर जीवन का अभ्युत्थान इसी कारण से उन्होंने त्यागमार्ग की प्रबुद्धता को महत्त्वपूर्ण माना । द्रव्योपकरण में त्याग मर्यादा का संरक्षण एवं उसका सम्पूर्णतया पालन करने में वे कृतनिश्चयी थे, इतना ही नहीं भावोपकरण में भी वही दृढ़ता प्रतीत होती है । बेजोड़ उनका जीवन बीसवीं शताब्दी में अविस्मरणीय तप-त्याग की सुगन्ध से ओत-प्रोत रहा है जिसने अनेक व्यक्तियों को अप्रमत्त स्थिति की ओर प्रेरित किया है । त्याग की अभंग स्थिति को आबाद बनाये रखने में उन्हें कठोरतम तपोधर्म का अधिकाधिक आसेवन करना पड़ा । जिन-मुद्रा में कई घंटों तक स्थिर रह कर पंचपरमेष्ठि का जाप, ध्यान, स्मरण उनका प्रमुख कर्त्तव्य-सा बन गया था, अनेक गाँवों, नगरों में एतद् विषयक कई दृष्टान्त श्रवण किये जा सकते हैं । मांगीतुंगी पार्वतीय क्षेत्र उनकी साधना का प्रमुख केन्द्र बन चुका था, जहाँ उन्होंने बहत्तर दिनों की एकासन, उपवास की तपश्चर्या के साथ महामंत्र के प्रथम पद के सवा करोड़ जाप किये थे । स्वर्णगिरिदुर्ग ( राजस्थान) भी उनकी ध्यान एवं तप-त्याग की पुण्यभूमि बना हुआ रहा था । निरन्तर तपश्चर्या एवं ध्यानयोग से श्रीमद् को एक भविष्यदृष्टा की अपूर्व शक्ति उपलब्ध हुई थी । भावि के भेद यदा-कदा ध्यान एवं तप- जप के बल पर उन्होंने प्रकट भी किये थे । त्यागी का त्यागपूर्ण जीवन स्वयं का विशुद्ध प्रभावपूर्ण सृजन तो करना ही है, अपितु इसके साथ ही साथ अनेक लोगों की जीवन स्थिति का विधायक भी बनता है । सच्चे विधाता वे ही हैं जो अप्रमत्तभाव से जीवन-निर्माण में सतत् लगे रहते हैं । गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी के उत्कृष्ट कोटि के त्याग की भूमिका तथा पूर्ववर्ती ; पश्चात्वर्ती एवं पार्श्ववर्ती जीवन उनके सहज त्याग का परिचायक है । श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर - विशेषांक / ४१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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