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स्वयं के कर्त्तव्य-पालन में उन्होंने कभी भी न्यूनता न आने दी इसी कारण से वे परमयोगी स्वरूप विख्यात हुए।
साहित्य-सेवा एवं निर्माण भी उनका विशुद्धतम लक्ष्य था ही; इसी से ही तो श्रीमद्-निर्मित वृहद् विश्वकोश - जैसे श्री अभिधान राजेन्द्र कोश का अनुपम निर्माण भारत एवं भारतेतर देशों में जैन एवं जैनेतर बहमखी-विद्वानों की अमूल्य निधि बन गया है। उन्होंने अपने त्याग के साथ-साथ यह जो असाधारण धरोहर प्रदान की है वह युग-युग तक उनकी चिरस्मृति को बनाये रखेगा। यह त्रिकालाबाधित सत्य है, हकीकत है।
श्रीमद् के जीवन के किसी भी प्रसंग को लें, तो कोई न कोई महत्त्वपूर्ण प्रेरणा हमें दृग्गोचर होगी ही।
वे जितने महान् थे और योगी थे, उतने ही निष्कषाय परिणति के पोषक भी थे। वे एक सामान्य आदमी की भी हितकारक बात को सदा के लिए स्वीकृत करने पर तत्पर रहते थे।
___ चतुर्मुखी प्रतिभा के धनी श्रीमद् के जीवन का त्याग-पक्ष इतना प्रबल है, इतना उज्ज्वल एवं अविरल है कि जिससे वे आजीवन जिनशासन की प्रभावना के अधिष्ठाता रहे।
उनका शुद्धतम लक्ष्य था त्यागमार्ग की प्रतिष्ठा की जाए, अतएव उनकी उपदेशधारा तदनुरूप ही प्रवाहित हुई।
___ “त्याग और राग के मध्य दिग्पाताल-सा महदंतर है, पूर्व-पश्चिम की-सी दोर्व लम्बी खाई की स्थिति स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है, फिर त्यागी एवं रागी का समानीकरण क्यों? त्याग में फिर राग या रागी की आवश्यकता क्यों? विशुद्ध त्याग की प्रक्रिया में रागासक्त का स्मरण-मात्र भी उच्चस्थिति का प्रणाशक बनता है तब फिर त्यागी को रागी का स्मरण व स्तुति क्यों?"
"मानव-जीवन की महत्ता को समझा जाए, दिग्दर्शन किया जाए एवं स्थिति का सही अंकन किया जाय । धर्म के मर्म की अनुभूति की जाय । अहिंसा, संयम, तप की त्रिवेणी में बाह्यान्तरिक स्नान किया जाय; और दृष्टिवादी बन कर स्वाभिमुखी जीवन बनाया जाय ।"
जो अबाधित रूप से सत्य समलंकृत थे उनके परमोच्व त्यागभाव ने जैन जगत् को प्रकाशमान किया और विश्वविश्रुत प्रभावकता की स्थिति को उद्भासित किया।
___ श्रीमद के जीवन को जिस ओर से देखा जाए उस ओर से वह गुण-संयुक्त ही दीखेगा।
तीर्थंकर : जून १९७५/४२
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