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दिन को, बनाना, दिन में खाना
समय या लोकमत की अवहेलना करता है, वह किसी का भी प्रेम सम्पादित नहीं कर पाता ।
४८. संसार में वैराग्य ही ऐसा है, जिसमें न किसी का भय है, न चिन्ता; अतः निर्भय वैराग्य-मार्ग का आचरण ही सर्वदा सुखप्रद है ।
४९. जो असंयम को दूर कर देते हैं और फिर कभी उसके फन्दे में नहीं फँसते, वे संयम में आरूढ़ रह कर अक्षय्य सुख को प्राप्त करते हैं; इतना ही नहीं, उनके सहारे अन्यों को भी आत्मविकास का अवसर मिलता है ।
५०. संयम कल्पवृक्ष है, तपस्या उसकी सुदृढ़ जड़ है, सन्तोष स्कन्ध है, इन्द्रिय-संयम शाखा-प्रशाखा हैं, अभय पर्ण हैं, शील पत्रोद्ग है । यह श्रद्धा के जल से सिंचकर सदैव नयी कोंपले धारण करता रहता है । ऐश्वर्य इसका पुष्प है और मोक्ष फल । जो इसकी भली-भाँति अप्रमत्त भाव से रक्षा करता है, उसके दुःखों का सदा के लिए अन्त हो जाता है ।
५१. जैसे वट-वृक्ष का बीज छोटा होते हुए भी उससे बड़ा आकार पाने वाला अंकुर निकलता है, उसी तरह जिसका हृदय विशुद्ध हैं, उसका थोड़ा किया हुआ सत्कार्य भी भारी रूप ग्रहण कर लेता है ।
५२. मनुष्य मानवता रख कर ही मनुष्य है । मानवता में सभी धर्म, सिद्धान्त, सुविचार, कर्त्तव्य, सुकार्य आ जाते हैं ।
५३. मानवों को अपने विकास के लिए निर्दोष प्रवृत्तियों का आश्रय लेना चाहिये, तभी आकांक्षित प्रगति हो आसान हो सकती है ।
५४. संसार में धार्मिक और कार्मिक सभी क्रियाएँ सद्भाव से ही सफल होती हैं ।
५५. साघु में साधुता तथा शान्ति, और श्रावक में श्रावकत्व और दृढ़ धर्म-परायणता होना आवश्यक है ।
५६. जो श्रावक अपने धर्म पर विश्वास नहीं रखता, कर्त्तव्य का पालन नहीं करता और आशा से ढोंगियों की ताक में रहता है, उसे उन पशुओं समान समझना चाहिये जो मनुष्यता से हीन हैं ।
५७. शान्ति तथा द्रोह परस्पर विरोधी तत्त्व हैं । जहाँ शान्ति होगी, वहाँ द्रोह नहीं होगा; और जहाँ द्रोह होगा वहाँ शान्ति निवास नहीं करेगी। द्रोह का मुख्य कारण है, अपनी भूलों का सुधार नहीं करना । जो पुरुष सहिष्णुतापूर्वक अपनी मूलों का सुधार कर लेता है, उसको द्रोह स्पर्श तक नहीं कर सकता ।
५८. प्रत्येक व्यक्ति को द्रोह सर्वथा छोड़ देना चाहिये और अपने प्रत्येक व्यवहार-कार्य में शान्ति से काम लेना चाहिये ।
तीर्थंकर : जून १९७५ / ३२
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