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५९. जहाँ घूसखारा, लूटपाट महगवारो और आपसी फूट का साम्राज्य रहता है, वहाँ न प्रजा को सुख मिलता है, और न सुखभर निद्रा आ सकती है।
६०. जीव संसार में अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है; ऐसी परिस्थिति में एक धर्म को अपना लेने से आत्मा का उद्धार होता है और किसी से नहीं।
६१. जीवन, स्नेही, वैभव और शरीर-शक्ति आदि जो कुछ दृश्यमान सामने हैं, वह समुद्री तरंगों के समान क्षण-भंगुर हैं। यह न कभी किसी के साथ गया और न किसी के साथ जाता है।
६२. जैसे सुगन्धित वस्तु की सुवास कभी छिपी नहीं रहती, वैसे ही गुण अपने आप चमक उठते हैं।
६३. जो सज्जन होते हैं वे सद्गुणी होकर भी अंशमात्र ऐंठते नहीं और न ही अपने गुण को अपने मुख से जाहिर करते हैं।
६४. जिस प्रकार आधा भरा हुआ घड़ा झलकता है, भरा हुआ नहीं; कांसे की थाली रणकार शब्द करती है, स्वर्ण की नहीं; और गदहा रेंकता है, घोड़ा नहीं; इसी प्रकार दुष्ट स्वभावी दुर्जन थोड़ा भी गुण पाकर ऐंठने लगते हैं और अपनी स्वल्प बुद्धि के कारण सारी जनता को मूर्ख समझने
लगते हैं।
६५. जिसके कुटुम्ब में कभी सुख और कभी दुःख इस प्रकार तुमुल जमा रहता है, वह सुखी नहीं महान् दुःखी है। - ६६. समाज में जब तक धर्मश्रद्धालु श्रावक-श्राविकाएँ न होंगी तब तक समाज अस्त-व्यस्त दशा में ही रहेगा।
६७. हाट, हवेली, जवाहरात, लाडी, वाडी, गाड़ी सेठाई और सत्ता सब यहीं पड़े रहेंगे। दुःख के समय, इनमें से कोई भी भागीदार नहीं होगा और मरणोपरान्त इनके ऊपर दूसरों का आधिपत्य हो जाएगा।
६८. अशाश्वत एवं क्षणभंगुर सुख में लिप्त न रह कर ऐसे आनन्द । को प्राप्त करने का यत्न करो जो कभी नाशवान ही न हो।
६९. कर्म-सत्ता को जिसने जीत लिया वही सच्चा विजयी है, इसलिए इसे जीतने का सच्चा मार्ग सीखो।
७०. प्राप्त दौलत से सुकृत करो, वह तुम्हें आगे भी सहायक सिद्ध हो सकेगा।
गदहा रेंकता है, घोड़ा नहीं
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/३३
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