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क्षमा- शुभ विचारों की जननी
३८. आग्रही व्यक्ति कल्पित तथ्यों की पुष्टि के लिए इधर-उधर की कुयुक्तियाँ खोजते हैं और उन्हें अपने मत की पुष्टि में संयोजित करते हैं, मध्यस्थदृष्टि - सम्पन्न व्यक्ति शास्त्र - सम्मत और युक्ति-संगत वस्तु-स्वरूप को मान लेने में तनिक भी हठाग्रह नहीं करते हैं ।
३९. जिन अपराधों के लिए एक बार क्षमा माँगी जा चुकी है, उन्हीं के लिए पुनः क्षमा माँगना प्रमाद है और उन्हें फिर न होने देना सच्ची क्षमा है ।
४० क्षमा शुभ विचारों को जन्म देती है, शुभ विचार सुसंस्कार बनते हैं, और सुसंस्कारों के माध्यम से जीवन का उत्तरोत्तर विकास होता है, जिससे ये धर्मरूप बन जाते हैं ।
४१. खाली लोकदिखाऊ औपचारिक क्षमा माँगना और जहाँ के तहाँ बने रहना क्षमा-याचना नहीं, धूर्तता है ।
४२ . मन को विरोध या वैमनस्य की दुर्भावना से सर्वथा हटा लेना और फिर कभी वैसी भावना न आने देना; क्षमा का ऐसा निर्मल स्वरूप ही आत्मा का विकास करने वाला है ।
४३ . जैसे तुम्बे का पात्र मुनिराज के हाथ में सुपात्र बन जाता है,
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संगीतज्ञ के द्वारा विशुद्ध बाँस से जुड़ कर मधुर संगीत का साधन बन जाता है, डोरियों से बन्धकर समुद्र तथा नदी को पार करने का निमित्त बन जाता है और मदिरा - मांसार्थी के हाथ पड़कर रुधिर - मांस का भाजन बन जाता है; वैसे ही कोई भी मनुष्य सज्जन या दुर्जन की संगति में पड़कर गुण या अवगुण का पात्र बन जाता है ।
४४. विष-मिश्रित भोजन देकर चकोर अपने नेत्र मूँद लेता है, हँस कोलाहल करने लगता है, मैना वमन करने लगती है, तोता आक्रोश में आ जाता है, बन्दर विष्टा करने लगता है, कोकिल मर जाता है, क्रौंच नाचने लगता है, नेवला और कौआ प्रसन्न होने लगते हैं; अतः जीवन को सुखी रखने के लिए सावधानी से संशोधन कर भोजन करना चाहिये ।
४५. व्यभिचार कभी सुखदायी नहीं है, अन्ततः इससे अनेक व्याधियों और कष्टों से घिर जाना पड़ता है ।
४६. रात्रि भोजन के चार भांगे हैं: दिन को बनाया, दिन में खाया । दिन को बनाया, रात में खाया ; रात में बनाया, दिन में खाया; अन्धेरे में बनाया और अन्धेरे में खाया। इनमें से पहला रूप ही शुद्ध है ।
४७. समय की गति और लोक-मानस की ढलान को भली-भाँति परख कर जो व्यक्ति अपना व्यवहार निश्चित करता है, वह कभी किसी तरह के पसोपेश में नहीं पड़ता; किन्तु जो हठाग्रह या अल्पमति के वश में होकर
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श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर - विशेषांक / ३१
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