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२९. सर्वादरणीय सत्साहित्य में संदिग्ध रहना अपनी संस्कृति का घात करने जैसा है।
___३०. जिस देव में भय, मात्सर्य, मारण बुद्धि, कषाय और विषयवासना के चिह्न विद्यमान हैं, उसकी उपासना में और उसके उपासक में भी वैसी वैसी ही ब द्धि उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
३१. यदि सुखपूर्वक जीवन-यापन की अभिलाषा हो तो सबके साथ नदी-नौका के समान हिल-मिल कर चलना सीखो।
३२. विद्या और धन दोनों ही सतत परिश्रम के सुफल हैं। मन्त्र-जाप, देवाराधना और ढोंगी-पाखण्डियों के गले पड़ने से विद्या और धन कभी नहीं मिल सकते। विद्या चाहते हो तो सद्गुरुओं की सेवा-संगति करो, पुस्तकों या शास्त्रों का मनन करने में सतत् प्रयत्नशील रहो; धन चाहते हो तो धर्म और नीति का यथाशक्ति परिपालन करते हुए व्यापार-धन्धे में संलग्न रहो ।
३३ . धन की अपेक्षा स्वास्थ्य, स्वास्थ्य की अपेक्षा जीवन, और जीवन की अपेक्षा आत्मा प्रधान है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए प्रकृति के अनुकुल कम खाना, झगड़े के वक्त गम खाना, और प्रतिक्रमणादि धर्मानुष्ठानों में उपवेशन एवं अभ्युत्थान करना चाहिये। जीवन और आत्मविकास के लिए चुगलबाजी, निन्दाखोरी, चालबाजी, कलहबाजी आदि आदतों को हृदय-भवन से निकाल कर दूर फेंक देना चाहिये और उनको शुद्ध आचार-विचार, शुभाचरण तथा शुद्ध वातावरण में योजित करना चाहिये ।
३४. उत्तम परिवार में जन्म, धर्मिष्ठ वातावरण, निर्वाह-योग्य धन, सुपात्र पत्नी, लोक में प्रतिष्ठा, सद्गुरुओं की संगति और शास्त्र-श्रवण में रुझान पूर्व पुण्योदय के बिना नहीं मिलते। जो पुरुष या स्त्री इन्हें पाकर भी अपने जीवन को सार्थक नहीं करता, उसके समान अभागा इस संसार में दूसरा नहीं है।
३५. जिस व्यक्ति में शौर्य, धैर्य, सहिष्णुता, सरलता, गुणानुराग, कषाय और विषय-दमन, न्याय और परमार्थ में रुचि इत्यादि गुण निवास करते हैं, संसार में वही पुरुष आदर्श और सन्माननीय माना जाता है। ऐसे ही व्यक्ति की सर्वत्र सराहना होती है और उसकी बात को आदरपूर्वक सुना जाता है।
३६. लालसा उस मृग-तृष्णा के समान है, जिसका कोई पार नहीं पा सकता। यह अन्तहीन है, अतः सन्तोष धारण करने से ही सुख-शान्ति प्राप्त हो सकती है।
३७. सन्तोषी प्रतिपल शास्त्र-श्रवण करता, नेत्रों से नीतिवाक्यामृतों को सुनता और सद्भावों की सुगन्धि से भरपूर रहता है; उसे काम-कलुष जरा भी छ् नहीं पाते।
विद्या और धन : सतत् परिश्रम के सुफल
तीर्थंकर : जून १९७५ / ३०
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