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________________ १९. विविध सांसारिक वेशों को चुपचाप देखते रहो, परन्तु किसी के साथ राग-द्वेष मत करो। समभाव में निमग्न रह कर अपनी निजता में लीन रहो, यही मार्ग तुम्हें मोक्षाधिकारी बनायेगा। २०. पुण्य और पाप दोनों क्रमशः सोने और लोहे की बेड़ियाँ हैं। ममाओं के लिए दोनों ही बाधक हैं। ज्ञानी पुरुष अपने अनुभव द्वारा दोनों को निःशेष करने में सदैव प्रयत्नवान रहता है। २१. कल्याणकारी वाणी बोलना, चंचल इन्द्रियों का दमन करना, संयम-भाव में लीन रहना, आपत्ति आ पड़ने पर भी अविकल रहना, अपने कर्तव्य का पालन करना, और सर्वत्र समभाव बरतना--इन गुणों का धारक ही साधु, श्रमण या मुनि कहलाता है। २२. धन चला जाए तो कुछ नहीं जाता, स्वास्थ्य चला जाए तो कुछ चला गया समझो, लेकिन जिसकी आबरू-इज्जत चली जाए, चरित्र ही नष्ट हो जाए तो उसका सब कुछ नष्ट हो गया यही समझना चाहिये; अतः पुरुष और स्त्री का सच्चरित्र होना अत्यन्त आवश्यक है। ___ २३ . जो व्यक्ति व्याख्यान देने में दक्ष हो, प्रतिभा सम्पन्न हो, कुशाग्र बुद्धिवाला हो; किन्तु मान-प्रतिष्ठा का लोलुपी हो, दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयत्न करता हो तो न तो वह वाग्मी है. न प्रतिभावान और न विद्वान् । २४. आगे बढ़ना पुरुषार्थ पर अवलम्बित है और पुरुषार्थ वही व्यक्ति कर सकता है जो आत्मबल पर खड़े रहना जानता है। दूसरों के भरोसे कार्य करने वाला पुरुष उन्नति-पथ पर चढ़ने का अधिकारी नहीं है, उसे अन्ततोगत्वा गिरना ही पड़ता है। ___२५. जन-मन-रंजनकारी प्रज्ञा को आत्म-प्रगतिरोधक ही समझना चाहिये ; जिस प्रज्ञा में उत्सूत्र, मायाचारी और असत्य भाषण भरा रहता है, वह दुर्गतिप्रदायक है। अतः आत्मशंसा का यत्न यथार्थ का प्रबोधक नहीं, अधमता का द्योतक है। २६. मानव में मनुजता का प्रकाश सत्य, शौर्य, उदारता, संयम आदि गुणों से ही होता है। जिसमें गुण नहीं उसमें मानवता नहीं, अन्धकार मनुजता का संहारक है, वह प्राणिमात्र को संसार में धकेलता है।। २७. जिनेश्वर-वाणी अनेकान्तमय है। वह संयम-मार्ग की समर्थिका है। वह सब तरह से तीनों काल में सत्य है और अज्ञान-अन्धकार को नष्ट करने वाली है। जिनवाणी में एकान्त दुराग्रह और असत् तर्क-वितर्कों के लिए लेशमात्र भी स्थान नहीं है। २८. जिस प्रकार सघन मेघ-घटाओं से सूर्य-तेज दब नहीं सकता, उसी प्रकार मिथ्या प्रलापों से सत्य आच्छादित नहीं हो सकता। पुण्य : सोने की बेड़ी, पाप : लोहे को... श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/२९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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