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१०. विनय मानवता में चार चाँद लगाने वाला गुण है। मनुष्य चाहे जितना विद्वान् हो, वैज्ञानिक और नीतिज्ञ हो; किन्तु जब तक उसमें विनय नहीं है तब तक वह सबका प्रिय और सम्मान्य नहीं हो सकता ।
११. जिस प्रकार मिट्टी से बनी कोठी को ज्यों-ज्यों धोया जाता है, उसमें से गारा के सिवाय सारभूत वस्तु कुछ मिलती नहीं, उसी प्रकार जिस मानव में जन्मतः कुसंस्कार घर कर बैठे हैं, उसको चाहे कितनी ही अकाट्य युक्तियों द्वारा समझाया जाए, वह सुसंस्कारी कभी नहीं होता।
१२. शरीर जब तक सशक्त है और कोई बाधा उपस्थित नहीं है, तभी तक आत्म-कल्याण की साधना कर लेनी चाहिये; अशक्ति के पंजे में फंस जाने के बाद फिर कुछ नहीं बन पड़ेगा, फिर तो यहाँ से कूच करने का डंका बजने लगेगा और अन्त में असहाय होकर जाना पड़ेगा।
१३. आत्मकल्याणकारी सच्ची विद्वत्ता या विद्या वही कही जाती है, जिसमें विश्व-प्रेम हो और विषय-पिपासा का अभाव हो तथा यथासम्भव धर्म का परिपालन हो और जीव को आत्मवत् समझने की बुद्धि हो।
१४. जो विद्वत्ता ईर्ष्या, कलह, उद्वेग उत्पन्न करने वाली है, वह विद्वत्ता नहीं, महान् अज्ञानता है; इसलिए जिस विद्वत्ता से आत्मकल्याण हो, उस विद्वत्ता को प्राप्त करने में सदा अप्रमत्त रहना चाहिये।
१५. जिस व्यक्ति ने मनुष्य-जीवन पाकर जितना अधिक आत्मविश्वास सम्पादित कर लिया है, वह उतना अधिक शान्तिपूर्वक सन्मार्ग पर आरूढ़ हो सकता है।
१६. जिस सत्ता से लोगों का उपकार किया जाए, निःस्वार्थ पर अविचल रहकर लाँच नहीं ली जाए और नीति-पथ को कभी न छोड़ा जाए, वही सत्ता का सम्यक् और वास्तविक उपयोग है, नहीं तो सत्ता को केवल गर्दभभार या दुर्गति-पात्र समझना चाहिये।
१७. दूसरे प्राणियों को सुखी करना मनुष्य का महान् आनन्द है और उन्हें व्यथित करना अथवा उन दुःख-पीड़ितों की उपेक्षा करना महादुःख है।
१८. क्षमा अमृत है, क्रोध विष है; क्षमा मानवता का अतीव विकास करती है और क्रोध उसका सर्वथा नाश कर देता है। क्रोधावेशी में दुराचारिता, दुष्टता, अनुदारता, परपीड़कता इत्यादि दुर्गुण निवास करते हैं और वह सारी ज़िन्दगी चिन्ता, शोक एवं सन्ताप में घिर कर व्यतीत करता है, क्षण-भर भी शान्ति से साँस लेने का समय उसे नहीं मिलता; इसलिए क्रोध को छोड़कर क्षमा को अपना लेना चाहिये।
क्षमा अमृत, क्रोध विष
तीर्थंकर जून १९७५/२८
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