SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद्राजेन्द्रसूरीश्वर की चुनी हुई सूक्तियाँ १. सहनशीलता के बिना संयम, संयम के बिना त्याग और त्याग के बिना आत्म-विश्वास असम्भव है। २. संसार में सुमेरु से ऊँचा कोई पर्वत नहीं और आकाश से विशाल कोई पदार्थ नहीं; इसी प्रकार अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं है। ३. अहिंसा प्राणिमात्र का माता की भाँति पालन-पोषण करती है, शरीररूपी भूमि में सुधा-सरिता बहाती है, दुःख-दावानल को बुझाने के निमित्त मेघ के समान है, और भव-भ्रमण-रूपी महारोग के नाश करने में रामबाण औषधि है। ४. सब कलाओं में श्रेष्ठ धर्म-कला है, सब कथाओं में श्रेष्ट धर्म-कथा है, सब बलों में श्रेष्ठ धर्म-बल है और सब सुखों में मोक्ष-सुख सर्वोत्तम है। ५. समय अमूल्य है। सुकृतों द्वारा जो उसे सफल बनाता है, वह भाग्यशाली है; क्योंकि जो समय चला जाता है, वह लाख प्रयत्न करने पर भी वापस नहीं मिलता। ६. जो कार्य जिस समय में नियत किया है, उसे उसी समय कर लेना चाहिये ; क्योंकि समय के कायम रहने का कोई भरोसा नहीं है। ७. एक ही तालाब का जल गौ और साँप दोनों पीते हैं, परन्तु गौ में वह दूध और साँप में विष हो जाता है; इसी प्रकार शास्त्रों का उपदेश भी सुपात्र में जाकर अमत और अपात्र या कुपात्र में जाकर विष-रूप परिणमन करता है। ८. अभिमान, दुर्भावना, विषयाशा, ईर्ष्या, लोभ आदि दुर्गुणों को नाश करने के लिए ही शास्त्राभास करके पाण्डित्य प्राप्त किया जाता है। यदि पण्डित होकर भी हृदय-भवन में ये दुर्गुण बने रहे तो पण्डित और मूर्ख में कोई भेद नहीं है, दोनों को समान ही जानना चाहिये। पण्डित, विद्वान् या विशेषज्ञ बनना है तो हृदय से अभिमानादि दुर्गणों को हटा देना ही सर्वश्रेष्ठ है। ९. जो व्यक्ति क्रोधी होता है अथवा जिसका क्रोध कभी शान्त नहीं होता, जो सज्जन और मित्रों का तिरस्कार करता है, जो विद्वान् होकर भी अभिमान रखता है, जो दूसरों के मर्म प्रकट करता है और अपने कुटुम्ब अथवा गुरु के साथ भी द्रोह करता है, किसी को कर्कश वचन बोल कर सन्ताप पहुंचाता है और जो सबका अप्रिय है, वह पुरुष अविनीत, दुर्गति और अनादर का पात्र है। ऐसे व्यक्ति को आत्मोद्धार का मार्ग नहीं मिलता है। अहिंसा : प्राणिमात्र को माता श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/२७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy