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________________ जमाने में सर्वथा असंभव था। यह इसलिए कि यतियों का शासन और प्रभाव जबर्दस्त था । राजसी वैभव की सुरक्षा के लिए शस्त्र-संग्रह भी हो गया था। संग्रह करने वाला स्वयं या अन्य से प्रयोग भी करवा सकता था। तीसरी और सातवीं कलमों को मिलाकर विचार करने से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है। पाँचवीं कलम से नशीली वस्तुओं के प्रयोग का भी पता चलता है । यह भी यतियों के पतन का प्रमाण है। अत: आठवीं कलम की रचना में सावधानी और गभित रहस्य रखा गया है। वास्तव में एक तानाशाही शासन के शासक को अपनी प्रतिभा और अपने तप-त्याग के बल पर चिन्तक ने अहिंसक मार्ग से परास्त कर दिया । इस कलमनामे की फलश्रुति श्रीविजयराजेन्द्रसूरि के जीवन की मौलिकता विशिष्टता, और शासन-भक्ति का अचूक प्रमाण है । कलमनामा मंजूर कराने में उनकी लगन और पठित यतिओं में उनका प्रभाव भी सक्रिय था । वे वास्तव में जन्मसिद्ध प्रभावक थे। कलमनामे की मंजूरी सुनकर वे प्रसन्न थे। यतियों का राजसी वैभव त्याग करके जाते हए क्रिया का पुनरुद्धार करने के लिए तमाम सत्ता तथा विलास का त्याग और दूसरे छोटे-बड़े राजपुत्रों जैसे पूज्यों यतियों को त्याग निष्ठा मुनिजीवन का मार्ग दिखलाना, ऐसा एक भव्य मनोज्ञ चित्र यह कलमनामा हमारी आँखों के सामने उपस्थित करता है। भरे-पूरे घरके, स्नेहिल भाई-बहिन आदि का त्याग करने वाले ये पुनरुद्धारक जब जावरा में छडी,चामर-पालखी-छत्र आदि के शाही ठाटबाट और यतियों के विलासी जीवन आदि का स्वयमेव त्याग करते हैं, तब इनकी त्याग भावना और त्यागप्रियता कितनी अविचल और सशक्त होगी इसे शब्दों में समझाने की आवश्यकता नहीं है। __ इत्र के विवाद से उत्पन्न संघर्ष का सुखद अन्त दोनों ओर के हितचिंतकों के लिए संतोषप्रद था। जिस दिन यह कलमनामा श्रीपूज्यराजेन्द्रसूरि को दिया गया, उस दिन जावरा में अनेक सुप्रसिद्ध यति आये थे। कहते हैं इनकी संख्या २५० के आसपास थी; जिन में पं. श्रीमोतीविजयजी, मुनिसिद्धिकुशलजी, श्री अमररुचिजी, लक्ष्मीविजयजी, महेन्द्रविजयजी, रूपविजयजी, फतेसागरजी, ज्ञानसागरजी, रूपसागरजी आदि मुख्य थे। . समाधान के सहर्ष स्वीकार होने पर पंन्यास मोतीविजयजी, महेन्द्रविजयजी, और सिद्धिकुशलजी ने श्रीपूज्य धरणन्द्रसूरिजी की ओर से श्री राजन्द्रसूरि की श्रीपूज्य पदवी की मान्यता की बात सभा में प्रकट की। जावरा के तथा आसपास के ग्राम-नगरों के उपस्थित अग्रेसर प्रसन्न हो गये । उसी समय भींडर (मेवाड़) के यति श्री अमररुचि के दीक्षा-शिष्य श्रीप्रमोदरुचि नामक यति, जो २६ वर्षों के तरुण, प्रतिभाशाली तीर्थंकर : जून १९७५/२४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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