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________________ ‘सत्थ पढंतु वि होइ जहु जो ण हणेइ वियप्पु । देहि वसंतु वि णिम्मलक णवि मण्ण्उइ परमप्पु ॥ (शास्त्रानुशीलन के बाद भी यदि विकल्प-जाल का विनाश न हुआ तो ऐसा शास्त्रानुशीलन किस काम का ?) इसी बात को शब्दान्तर से "योगसार" कार ने भी कहा है 'जो णवि जण्णइ अप्पु पर णवि परमाउ चएइ । सो जाणद सत्थई सकल पहुं सिव सुबसु लहेइ ॥ (जिसने सकल शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके भी यह न जाना कि क्या उपादेय और हेय है-आत्मीय और परकीय है, संकीर्ण स्वपर-भाव में व्यस्त रहकर जिसने परभाव का त्याग नहीं किया-वह शिवात्मक सुख की उपलब्धि किस प्रकार कर सकता है ? ) । इसी प्रकार 'दोहा पाहुड़' कार का भी विश्वास है कि जिस पण्डित शिरोमणि ने पुस्तकीय ज्ञान में तो जीवन खपा दिया, पर आत्मलाभ न किया, उसने कण को छोड़कर भूसा ही कूटा है। पंडिल पंडिय पंडिया कण छंदिवि तुस कंडिया । अत्थे गंथे तुट्ठो सि परमस्थु ण जाणहि मूढ़ोसि ।। (२) पुस्तकीय ज्ञान की अवहेलना के साथ संतों का दूसरा संवादी स्वर हैभीतरी साधना या अंतर्योग पर बल । सिद्धों, नाथों और संतों की भाँति इन जैन मुनियों ने भी कहा है कि जो साध बाह्य लिंग से तो युक्त है किन्तु आंतरिक लिंग से शून्य है वह सच्चा साधक तो है ही नहीं, विपरीत इसके मार्ग-भ्रष्ट है। सच्चा लिंग भाव है-भावशुद्धि से ही आत्मप्रकाश संभव है । 'मोक्ख पाहुड़' में कहा गया है-- वाहिर लिंगेण जुदो अभ्यंतरलिंगरहिय परियम्मो । सो सगचरित्तमट्टो मोव व पहविणासगो साहू ॥ इसी बात को शब्दान्तर से कुंदकुंदाचार्य ने “भाव पाहुड़” में भी कहा है भावो हि पढमलिंगं न दिव्यलिंगं च जाण परमत्थं । ___ भावो कारणमूदो गुणदोसाणं जिणाविति ॥ (३) अन्तर्योग पर बल ही नहीं, उससे विच्छिन्नमूल बहियोग, बाह्यलिंग अथवा बाह्याचार का उसी आवेश और विद्रोह की मुद्रा में इन जैन मुनियों ने खण्डन किया है। आनन्दतिलक ने स्पष्ट ही कहा है कि कुछ लोग बालों को नुचवाते हैं अथवा व्यर्थ में कष्ट वहन करते हैं, परंतु इन सबका फल जो आत्मबिंदु का बोध है, उससे अपने को वंचित रखते हैं केइ केस लुचावहिं, केइ सिर ज मारु । अप्पविंदु ण जाणहिं आणंदा किम जावहिं भयपारु ? श्रीमद राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१९५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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