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________________ स्वीकार करती है और न ही वासना के शोधन या चिन्मयीकरण'की-जबकि सतजन-विचार और आचार-दोनों पक्षों में "आगम" धारा को मानते हैं। मौजी और मौज, सुरत और शब्द के “योग” अथवा “सामरस्य' में जहाँ संतजन "द्वयात्मक अद्वय” को स्वीकार करते हैं, “वहाँ काम मिलावे राम को" द्वारा प्रेम की महत्ता का गान करते हुए तन्मय परमात्मा की उपलब्धि में वासना के शोधन और चिन्मयीकरण की भी स्थिति स्वीकार करते हैं। आगम-सम्मत संत-परम्परा से जैनधारा का एक तीसरा अंतर यह भी है कि जहाँ पहला अद्वयवादी है वहाँ दूसरा भेदवादी। वह न केवल अनेक आत्मा की ही बात करता है अपितु संसार को भी अनादि और शाश्वत सत्य मानता है । इस प्रकार ऐसे अनेक भेदक तत्त्व उभरकर सामने आते हैं, जिनके कारण संत-साहित्य के संदर्भ में जैन साहित्य को देखना असंभव लगता है। जैन धारा कृच्छ एवम् अच्छेदवादी होने से शरीर एवं संसार के प्रति विरक्त सृष्टि रखती है। यही कारण है कि जैन साहित्य में यही निर्वेद भाव पुष्ट होकर शान्त रस के रूप में लहराता हुआ दृष्टिगोचर होता है। शृंगार का चित्रण सर्वदा उनकी कृतियों में वैराग्य-पोषक रूप में हुआ है। जैन काव्य का प्रत्येक नायक निर्वेद के द्वारा अपनी हर रंगीन और सांसारिक मादक वृत्ति का पर्यवसान "शान्त' में ही करता है। पर इन तमाम भेदक तत्त्वों के बावजूद छठी-सातवीं शती के तांत्रिक मत के प्रभाव-प्रसार ने जैन-मुनियों पर भी प्रभाव डाला, फलतः कतिपय अपभ्रंश-बद्ध जैन रचनाओं में संत का-सा स्वर भी श्रुतिगोचर होता है। चरमलक्ष्य से विच्छिन्न फलतः विजड़ित एवं रूढ़ प्रायः आचार-बाहुल्य के प्रति एक तीखी प्रतिक्रिया और अंतर्योग के प्रति लगाव का संतसंवादी विद्रोही स्वर कतिपय रचनाओं में विद्यमान है । पाहुड़ दोहा, योगसार, परमात्म प्रकाश, वैराग्यसार, आनंदा, सावय धम्म दोहा आदि रचनाएँ ऐसी ही हैं। इनमें संतसंवादी मनःस्थिति का प्रभाव या प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखायी पड़ता है। जिस प्रकार अन्य रहस्यवादी रचयिताओं ने क्रमागत रूढ़ियों एवं बाह्याचारों का खण्डन करते हुए पारमार्थिक तत्त्वों की उपलब्धि के अनुरूप यत्नों और दिशाओं को महत्त्व दिया है-यही स्थिति इन जैन-मुनियों की भी है। लगता है कि इस अवधि में आचार या साधन को ही साध्यता की कोटि प्राप्त होती जा रही थी-फलतः कट्टर साम्प्रदायिक लकीरों और रेखाओं के प्रति इनके मन में भी उग्र आक्रोश था और उस झुंझलाहट को वे उसी उग्र स्वर में व्यक्त करते हैं जिस स्वर में सिद्धों, नाथों और निर्गुनियों ने आक्रोश-गर्भ उदगार व्यक्त किये थे। प्रो. हीरालाल जैन ने ठीक लिखा है, "इन दोहों में जोगियों का अगम, अचित्-चित्, देह, देवली, शिवशक्ति, संकल्प-विकल्प, सगुण, निर्गुण, अक्षरबोध, विबोध, वाम-दक्षिण-अध्व, रवि-शशि, पवन, काल आदि ऐसे शब्द हैं और उनका ऐसे गहन रूप में प्रयोग हुआ है कि उनमें हमें योग और तांत्रिक ग्रंथों का श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१९१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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