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स्मरण हुए बिना नहीं रहता । संप्रति, आगम संत संवादी स्वरों में से एक-एक का पर्यवेक्षण प्रस्तुत है। (१) परतत्त्व संबंधी वैचारिक या सैद्धान्तिक पक्ष
ऊपर यह स्पष्ट कहा जा चुका है कि जैन धारा में आत्मा ही मुक्त दशा में परमात्मा है, वह अनेक है और अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य का भण्डार है। अशुद्ध दशा में उसके ये गुण कर्मों से ढंके रहते हैं। पर इस मान्यता के साथ-साथ उक्त ग्रंथों में ऐसी कई बातें पायी जाती हैं, जो निःसंदेह आगमिक धारा की हैं। संतों की भाँति जैन मुनियों के भी वे ही तांत्रिक ग्रंथ स्रोत हैं। बौद्धों की भाँति जैनों पर भी यह प्रभाव दृष्टिगत होता है। आगमिकों की भाँति जैन मुनियों ने भी परमात्म भाव को “समरस' ही नहीं कहा है। "शिवशक्ति” को समरूप या अद्वयात्मक रूप भी कहा है। मुनि रामसिंह ने कहा है--
सिव विणु सन्ति ण वावरह, सिद पुणु सन्ति विहीणु । दोहि मि जाणहिं सयलु जगु, बुज्झइ मोह-वि णु ॥
(पाहुड़ दोहा) । शक्तिरहित शिव कुछ नहीं कर सकता और न तो शक्ति ही शिव का आधार ग्रहण किये बिना कुछ कर सकती है। समस्त जगत् शिव-शक्तिमय है। जड़ परमाणु अपनी समस्त संरचना में गतिमय या सस्पंद है, जो शक्ति का ही स्थल परिणाम है। दूसरी ओर जीवन भी डी. एन. ए. तथा आर. एन. ए. के संयुक्त रूप में द्वयात्मक है। एकत्र वही शक्ति शिव ऋणात्मक धनात्मक अवयव हैं अन्यत्र स्त्रीत्व तथा पुंसत्व का सम्मिलन इस प्रकार सारा जगत् द्वयात्मक है, जो अपनी निरपेक्ष स्थिति में अद्वयात्मक है। संत साहित्य के अंतर्गत राधास्वामी तथा गुरु नानक ने भी इस सिद्धान्त का वृद्ध रूप में निरूपण किया है। परतत्त्व या परमात्मा को समरस कहना द्वयात्मकता सापेक्ष ही तो है। अभिप्राय यह कि भूल धारणा आगम-सम्मत है-वही इन जैन मुनियों की उक्तियों में तो प्रतिबिम्बित है ही, संतों ने भी 'सुरत' तथा 'शब्द' के द्वारा तांत्रिक बौद्ध सिद्धों ने “शून्यता" और "करुणा" तथा "प्रज्ञा" और "उपाय" के रूप में उसी धारणा को स्वीकार किया है। अन्यत्र “समरसीकरण" की भी उक्तियाँ हैं
मणु मिलियउ परमेसर हो, परमेसरु जि मणस्स ।
विण्णि वि समरसि हुइ रहिय पुज्जु चडावउ कस्स ॥ मन परमेश्वर से तथा परमेश्वर मन से मिलकर समरस हो जाता है और जब यह सामरस्य हो गया, तब द्वैत का विलय भी हो जाता है। द्वैत का विलय हो जाने से कौन पूजक और कौन पूज्य ? कौन आराधक और कौन आराध्य ? फिर तो
"तुभ्यं मह्यं नमो नमः"
तीर्थंकर : जून १९७५/१९२
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