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________________ सृष्टि अस्थिर, बेचैन, गतिमय तथा खिन्न है। इस स्थिति से उबारने के लिए इस व्यवधान को समाप्त करना पड़ता है-शक्ति से शिव का मिलना या सामरस्य अपेक्षित होता है। निगुनिए संत पहले साधक हैं-इसके बाद और कूछ । इनकी साधना है-सुरत, शब्द, योग । यह सुरत या सुरति और कुछ नहीं, उक्त “शक्ति” ही है-जो आदिम मिलन' या युगनद्धावस्था को स्मृत्यात्मक बीज रूप में सभी वद्धात्माओं में पड़ी हुई हैं । प्रत्येक व्यक्ति में यही प्रसुप्त चिन्मयी शक्ति “कुण्डलिनी" कही जाती है। अथर्ववेद में यही “उच्छिष्ट" है पुराणों में यही “शेषनाग " है। स्थूलतम पार्थिकात्मक परिणति के बाद कुण्डलिप्त “शक्ति' विश्व ऑर व्यष्टि उभयत्र मूलाधार में स्थिर है। 'कह भीखा सब मौज साहब की मौजी आपु कहावत ।' भीखा साहब आगमिकों की शक्तिमान (शिव) और शक्ति की भाँति मौजी और मौज की बात करते हैं। मौजी को एक दूसरे संत ने शिव तथा मौज को स्पष्ट ही शक्ति कहा है 'सुरति सुहागिनि उलटि के मिली सबद में जाय । मिली सबद में जाय कन्त को बस में कीन्हा। चलै न सिव के जोर जाय जब सक्ति लीन्हा । फिर सक्ती धी ना रहै, सक्ती से सीव कहाई । अपने मन के फेर और ना दूजा कोई। सक्ती शिव है एक नाम कहने को दोई । पलटू सक्ती सीव का भेद कहा अलगाय । सुरति सुहागिनि उलटि के मिली सबद में जाय ।। पलटूदास की इन पंक्तियों के साक्ष्य पर उक्त स्थापना कि आगमिक दृष्टि ही संतों की दृष्टि है-सिद्ध हो जाती है। ___ आगम की भाँति संतजन भी बहियोग की अपेक्षा अंतर्योग की ही महत्ता स्वीकृत करते हैं और इस अंतर्योग की कार्यान्विति “गरु'' के निर्देश में ही संभव है। आगमों की भाँति संतजन मानते हैं कि गुरु की उपलब्धि पारमेश्वर अनुग्रह से ही संभव है। यह गुरु ही है जिसकी उपलब्धि होने पर “साधना" (अंतर्योग) संभव है। यह तो ऊपर कहा ही जा चुका है कि द्वयात्मक अद्वय सत्ता विश्वात्मक भी है और विश्वातीत भी। विश्वात्मक रूप में उसके अवरोहण की एक विशिष्ट प्रक्रिया है और उसी प्रकार आरोहण की भी । विचार-पक्ष से जहाँ आगमों ने द्वयात्मक अद्वय तत्त्व की बात की है वहीं आचार-पक्ष से वासना (काषाय)-दमन की जगह वासना-शोधन की बात भी। जैनधारा न तो “द्वयात्मक अद्वय" की बात तीर्थंकर : जन १९७५/१९० . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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