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________________ होना आवश्यक था और यह नारी-संभोग से सहज ही हो जाता था। इससे न कुंठाएँ बनती थीं न कम्प्लेक्सेस । नारी की वारुणी से कुछ समय के लिए ही सही, साधक निर्विकार अनुभव करता था। सेक्स जैसे प्रबल विकार का यह सामयिक हल उन्हें भाया । वह चल पड़ा । साधना की मजबूत पष्ठभूमि के रूप में। जब पार्श्वनाथ के 'अपरिग्रह' का विकृत अर्थ, उन्हीं के भ्रमाकुलित अनुयायियों द्वारा किया जा रहा था, महावीर का जन्म हुआ। वे अपरिग्रह की इस व्याख्या से सहमत न हो सके। उन्होंने विश्व की सभी आसक्तियों को हेय माना, फिर उसमें स्त्रीआसक्ति ही क्यों न हो; किन्तु वह सबसे अधिक प्रबल है, ऐसा उन्होंने माना और इसी कारण अपरिग्रह से पृथक् ब्रह्मचर्य का स्पष्ट निर्देश किया। इस प्रकार 'अपरिग्रह' में अन्तर्भुक्त ब्रह्मचर्य का अस्तित्व नितान्त उजागर हो गया और भ्रम तथा संदेह का तो जैसे मार्ग ही अवरुद्ध हो गया। ब्रह्मचर्य को उन्होंने अपने समूचे जीवन से सिद्ध और पुष्ट किया। साधक महावीर और ब्रह्मचर्य दो पृथक् सत्ताएँ नहीं थीं। वे एकमेव हो गयी थीं। यही कारण था कि उस समय गिरते और ढहते आचार को एक सुदृढ़ आधार मिल सका । वह उस पर टिका और शताब्दियों टिका रहा । आज फिर गिर रहा है। उसके टिकने के लिए ऐसा ही एक मजबूत आधार चाहिये । यदि कोई दे सके तब तो ठीक है, नहीं तो कोरे वक्तव्यों, अम्बर और निरम्बर वेशों, नाना सजे-धजे मंचों और विश्व-सम्मेलनों से वह प्राप्त नही हो सकता, यह सत्य है। महावीर ने जिस तत्त्व को अपने सम चे जीवन में ढाला और एक मूर्त रूप दिया, उसका नाम रखा ब्रह्मचर्य। इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति है--'ब्राह्मणि चरतीति ब्रह्मचारी' और उसका भाव ब्रह्मचर्य । व्युत्पत्ति का आधार है ब्रह्म, उसमें चरण करो, तभी ब्रह्मचर्य धारण कर सकते हो, अन्यथा नहीं। यह एक पाजिटीव व्युत्पत्ति है। शायद महावीर का तात्पर्य था कि यह जीव ज्यों-ज्यों ब्रह्म में लीन होता जाएगा, उसका और सब कुछ स्वतः छूटता जाएगा। वही स्वाभाविक होगा, सहज होगा; अर्थात् उन्होंने वर्जनाओं पर बल नहीं दिया। किसी को छोड़ने की बात नहीं कही। छोड़ने और छ्टने में अन्तर है। आज जो ब्रह्म की ओर मुंह किये बिना छोड़ने का दावा करते हैं, वे नहीं जानते कि बाहर का त्याज्य भीतर से उतना ही तीव्रगति से पकड़ता है । और फिर त्याग का एक. दम्भ-भर रह जाता है जो बाहय वस्तु से भी अधिक दुखदायी है। तो महावीर के ब्रह्मचर्य का मतलब था कि अब्रह्म सहज और स्वाभाविक रूप से स्वत: छूट जाए। यह तभी हो सकता था जब जीव का चित्त ब्रह्म की ओर मड़े। यह मड़ना ही सत्य था, कार्यकारी था। मुड़ना भी तभी स्थायी हो सकता है, जब वह स्वतः स्फूर्त हो, एक निर्झर की भाँति स्वत: चल पड़ा हो, ऐसा महावीर ने स्पष्ट कहा। .. . तीर्थंकर : जून १९७५/१८६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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