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है।" सहज का अर्थ आसान अवश्य है, किन्तु आसान के दर्शन केवल स्त्री-पुरुष के संभोग में करना ठीक नहीं है, ऐसा तत्कालीन अनेक साधकों ने स्वीकार किया। उनमें सरहप मुख्य थे।
आसान अथवा सहज का यह विकृत अर्थ जैन साधकों में भी आया और वे चरित्र को नगण्य तथा स्त्री-आसक्ति को जायज मानने लगे; किन्तु उनकी संख्या अत्यल्प थी। कुछ समय बाद तो वे विलीन हो गये। तीर्थंकर पार्श्वनाथ और महावीर के मध्यकाल में एक सम्प्रदाय पनपा था। नाम था पार्श्वस्थ । प्राकृत में उसे 'पासत्थ' कहते थे। दोनों का अर्थ है-पार्श्वनाथ में स्थित । इस सम्प्रदाय के साधु जब नितान्त शिथिलाचारी हो गये तो पासत्थ' का दूसरा अर्थ 'पाशत्थ' अर्थात् पाश में फंसा हुआ किया जाने लगा। इनके नैतिक जीवन के ह्रास की बात प्रो. जैकोबी ने 'उत्तराध्ययन सूत्र' के आधार पर सिद्ध की है। यह बात भगवती आराधना में भी लिखी मिलती है--"इंदिय कसाय गुरु पत्तणेण चरणं तणं वपस्संतो। णिद्धम्मो हु सवित्ता वदि पासत्त्थ सेवओ ॥” इसका अर्थ है-पार्श्वस्थ मुनि इन्द्रिय, विषय और कषायों से हार कर चरित्र को तृण के समान समझता है। ऐसे पार्श्वस्थ साधु की जो सेवा करता है, वह भी वैसा ही बन जाता है। सूत्रकृतांग में एक स्थान पर लिखा हुआ है"एवमेगे उपासत्त्था पन्नवंति अणारिया । इत्थीवसं गया बाला जिणसासण परम्भुहा ।।" अर्थात् पार्श्वस्थ साधु अनार्य, बाल, जिनशासन से विमुख और स्त्री-आसक्त होते हैं।
उन्होंने स्त्री-आसक्ति अथवा उसकी संगति अथवा उसके आकर्षण को अधर्म नहीं माना । इसका एकमात्र कारण था पार्श्वनाथ के अपरिग्रह का वक्र विश्लेषण। परिग्रह में स्त्री अन्तर्भुक्त थी। तो, परिग्रह में अन्य सांसारिक वस्तुओं की अनासक्ति की भाँति स्त्री-विरक्ति भी शामिल थी । कल्पसूत्र के “स्त्री अपि परिग्रह एव, परिग्रहे प्रत्याख्याते, स्त्री प्रत्याख्याता एव ।” कथन से ऐसा सिद्ध ही है; किन्तु परिग्रह में स्त्री भी शामिल है', यह केवल समझ की बात थी। पार्श्वनाथ के युग का व्यक्ति ऋजु और बुद्धिमान था । वह इसको समझता था। महावीर का युग वक्र और जड़ था । अतः समझते हुए भी नहीं समझा। स्त्री का स्पष्ट उल्लेख तो था नहीं, तो इसी बात को माध्यम बना कर उसे परिग्रह के घेरे से पृथक् घोषित कर दिया । ऐसा करने से स्त्री-विहार की स्वतंत्रता मिल जाती थी। वह उसने ली। उसके इस विश्लेषण से शास्त्रीय आधार को कोई ठेस नहीं लगती थी।
उसे अधर्म न मानना एक बात है, किन्तु उसके भोग को धर्म कहना दूसरी बात है। उन्होंने स्त्री-संगति को धर्म का सबल आधार माना। उनका कथन था कि--"जैसे फुन्सी-फोड़े को महत भर दबा देने से मवाद निकल जाता है और शान्ति पड़ जाती है, ठीक वैसे ही स्त्री के साथ समागम करने से शान्ति मिलती है। इसमें दोष क्या?" आगे चल कर वज्रयानी तान्त्रिक साधुओं ने भी निर्वाण के लिए नारीभोग को अनिवार्य माना। साधना प्रारम्भ करते समय मन का शान्त होना, हलका
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१८५
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