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________________ जानता है, वह अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को ही जानता है और जो अहंत के स्वरूप में स्थिर रहता है, वह अपने आत्मा के स्वरूप में ही स्थिर रहता है । इस भाँति जैन परम्परा आत्मसाक्षात्कार के सन्दर्भ में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान मानती है; किन्तु यह श्रद्धा प्रयत्नपूर्वक बलात्कारेण लायी हुई नहीं होनी चाहिये । उसके सहज रूप पर ही जैन आचार्यों ने बल दिया है। सहज का अर्थ है स्वाभाविक, स्वतःस्फूर्त । अन्तर में एक लहर-सी उठी और बाहर तक खिचती चली गयी। जब वह स्वयं उभरती है सहज रूप में तो समूचा शरीर और मन आप्यायित हुए बिना नहीं रहता। भीग जाता है ऊपर से नीचे तक । और फिर इन्सान बदल जाता है। वह नहीं रहता, जो अब तक था। दुनिया उसे खोया हुआ कहती है, पिये हुए कहती है, मदोन्मत्त कहती है। क्यों न कहेगी, उसे कहना ही चाहिये। वह उनकी अपनी धार से कट गया है, छिटक कर अलग खड़ा हो गया है। उसने उस दिशा की ओर कदम उठाये हैं जो दुनिया की दिशाओं से मेल नहीं खाती । वह विद्रोही है। अनिवर्चनीय को पाने की ललक और उस ओर प्रगतिशील चरण सदैव संसार के आक्रोश का कारण बने हैं। ईसा, सुकरात, मीरा और गांधी सभी निरादृत हुए। महावीर बचे रहे। इसलिए नहीं कि उन्होंने समाज की लकीरों को स्वीकार कर लिया, अपितु इसलिए कि उन्होंने बारह वर्ष तक एक शब्द का उच्चारण नहीं किया। जब बोले, साधना पूर्ण हो चुकी थी । वे केवलज्ञानी थे । यह दीर्घ मौन साधना चल सकी; क्योंकि चित्त सहज रूप से परमात्मा की ओर मुड़ा हुआ था। इस मोड़ को ही सम्यक् श्रद्धा कहते हैं। महावीर ने उसी पर बल दिया। सहज श्रद्धा में अर्थ का अनर्थ भी बहुत हुआ है। साधकों ने सहज को मनमाने ढंग से मोड़ा-उसका अर्थ कर दिया और आसान और आसान वह है जो मनोनुकूल हो। मन आनन्दित होता है—सर्वकामोपभोगों के सेवन में। अतः नीच-कुलोत्पन्न स्त्री को उसने महामुद्रा के पद पर प्रतिष्ठित किया और उसके सेवन को सिद्धि का सोपान बताया। वह स्त्रीन्द्रिय' को पद्म और पुरुषेन्द्रिय को वज्र मानता था। पद्म और वज्र का मिलन ही निर्वाण था। 'ज्ञानसिद्धि' नाम के ग्रन्थ में एक स्थान पर लिखा है "चाण्डालकुल सम्भूतां डोम्बिका वा विशेषतः । जुगुप्सितां कुलोत्पन्नां सेवयन् सिद्धिमाप्नुयात् ॥ . स्त्रीन्द्रियं च यथा पद्म वज्रं पुंसेन्द्रियं तथा ॥” । किन्तु ऐसे भी साधक थे, जिन्होंने कमल और कुलिश के प्रयोग को अन्तिम ध्येय के रूप में स्वीकार नहीं किया। उन्होंने स्पष्ट कहा, “कमल तथा कुलिश के संयोग द्वारा जो साधना की जाती है, वह तो निरा सुरतविलास है और उसे कौन सांसारिक जीव प्रयोग में नहीं लाता, कौन वासना की तृप्ति नहीं करता, किन्तु वह 'परमानन्द' का क्षणांश-भर है । वास्तविक रहस्य तो इससे भिन्न और दूरस्थ होता तीर्थंकर : जून १९७५/१८४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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