SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में राग-द्वेष नहीं सताते। क्षोभ और मोह नहीं सताते। आवेश और वासनाएँ नहीं सतातीं। यह ज्ञान का स्थान है और वह वासना का स्थान है। हमारी एकाग्रता से हमें ज्ञान प्राप्त हुआ और ज्ञान के बाद हम सत्य में एकाग्र हो गये, एकाग्रता की स्थिति आ गयी। हम उस धारा को नीचे नहीं ले जाते, उसे नीचे नहीं उतरने देते। नीचे उतरने नहीं देने का अर्थ ही है कि हमारी वृत्तियों में परिवर्तन आ गया है। इसे कहते हैं--अन्तर्मुखता। बहिर्मुखता की बात समाप्त होकर अन्तर्मुखता प्राप्त हो जाती है। उस स्थिति में इन्द्रियाँ बदल जाती हैं, मन बदल जाता है। जो इन्द्रियाँ किसी दूसरी ओर दौड़ रही थीं, वे अपने आप में प्रत्याहृत अथवा प्रत्याहार की स्थिति में आ जाती हैं। मन जो बाहर की ओर जा रहा था वह भी अन्तर्मुख हो जाता है, संयमित हो जाता है। प्रतिसंलीनता फलित हो जाती है। इसका अर्थ है अपने-आप में लीन होना। प्रतिसंलीनता घटित होती है। इन्द्रियाँ जो बाहर की ओर दौड़ रही थीं, वे अपने आप में लीन हो जाती हैं। जो बच्चा घर से बाहर चला गया था, वह पुनः घर में आ जाता है। मन का पंछी जो बाहर की ओर जाना चाहता था, वह थककर पींजड़े में आकर बैठ जाता है। बाहर जाने की स्थिति समाप्त। उनका क्रम बदल जाता है। स्थितात्मा की स्थिति प्राप्त होती है। ज्ञान जब ज्ञान-केन्द्र में ही रहता है, ज्ञान की धारा जब ज्ञान-केन्द्र में ही रहती है तब आदमी स्थितात्म हो जाता है। वह इतना स्थिर बन जाता है कि कुछ भी करने को शेष नहीं रहता। स्थितात्मा ही दूसरों को स्थित बना सकता है। चल व्यक्ति किसी को स्थित नहीं बना सकता। स्थित आत्मा ही स्थित बना सकता है। ज्ञान-समाधि के क्रम में सबसे पहले ज्ञान है, चाहे वह पुस्तकीय ज्ञान ही क्यों न हो। वह गलत नहीं है। शास्त्रों में हजारों-हजार व्यक्तियों के अनुभव संदृब्ध है। उनका स्वाध्याय करने का अर्थ है कि हजारों-हजार अनुभवों से लाभ उठाना। कुछ लोग शास्त्रों के स्वाध्याय का खण्डन करते हैं। यह खण्डन ज्ञान का नहीं होना चाहिये। खण्डन होना चाहिये संवेदन का। हम कहीं से जानें--पुस्तक को पढ़कर जानें, सुनकर जानें, कहीं से भी जानें, अगर ज्ञान है तो कोई कठिनाई नहीं है। ज्ञान कहीं नहीं भटकता; भटकाता है संवेदन। ज्ञान और संवेदन को ठीक तरह से समझ लें तो सारी समस्याएँ सुलझ जाती हैं। इनको ठीक से नहीं समझते हैं तो कभी हम ज्ञान को कोसते हैं, कभी शास्त्रों को कोसते हैं, कभी पुस्तकों को कोसते हैं, गालियाँ देते हैं, उनके लिए ऊटपटाँग बातें करते हैं। यह दोष उन शस्त्रों का नहीं, उन ग्रन्थों का नहीं, उन पुस्तकों का नहीं, पुस्तक लिखने वाले ज्ञानी पुरुषों का नहीं, यह हमारा ही दोष है। हम संवेदन की धारा में जाकर ज्ञान पर तीव्र प्रहार करने लग जाते हैं। यह बहुत बड़ी आत्म-भ्रान्ति है। यह नहीं होनी चाहिये। ज्ञान होना चाहिये । वह ज्ञान चाहे अन्तरात्मा से प्रगट हो और चाहे बाहर से स्वीकृत या गृहीत हो, वह अन्तमुखता का कारण बनता है। जब कोरा ज्ञान है तो हमारी कोई कठिनाई नहीं है। श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१.७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy