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हमारी सावधानी सिर्फ उस प्रवाह में होनी चाहिये कि यमुना के स्वच्छ पानी में दिल्ली का गंदा नाला न पड़ जाए। इतनी-सी सावधानी बरतनी चाहिये। यदि गंदा नाला पड़ता है तो ज्ञान स्वच्छ नहीं रहा, ज्ञान ही नहीं रहा, पानी स्वच्छ नहीं रहा, यमुना का पानी ही नहीं रहा। वह तो दिल्ली का पानी हो गया। यमुना का पानी जहाँ यमुना का पानी है, गंगा का पानी जहाँ गंगा का पानी है, वहाँ कोई कठिनाई नहीं है। जब गंदा नाला इसमें पड़ता है तब गंदगी आ जाती है। यह गंदगी है संवेदन की। संवेदन की गंदगी को साफ पानी से अलग करते रहें तो ज्ञान की कोई कठिनाई नहीं रहती। ज्ञान-समाधि वास्तव में समाधि का सबसे बड़ा सूत्र है। आदमी को यदि समाधि मिल सकती है तो ज्ञान के द्वारा ही उच्चकोटि की समाधि प्राप्त हो सकती है। और-और क्षेत्रों में बहुत खतरा है। प्राणायाम से लाभ है तो खतरा भी बहुत है। आसन करने में लाभ हैं तो खतरे भी हैं। थोड़ी-सी भूल बड़ा खतरा पैदा कर देती है। एकाग्रता करने में भी खतरा है। यदि इसमें अधिक तनाव आ गया, ऊष्मा अधिक बढ़ गयी तो दिमाग पागल-जैसा बन जाता है। आदमी पागल हो जाता है। रोने-चिल्लाने लग जाता है। ऐसा लगने लगता है कि मानो उसे भूत लग गया हो। इस प्रकार हर बात में कठिनाई है। सबसे निरपवाद और निर्विघ्न कोई समाधि है तो वह है ज्ञान-समाधि । मैंने पहले ही कहा था कि यह जितनी निर्विघ्न है उतनी ही कठिनतम। इतना जागरूक रहना और राग-द्वेष की धारा को ज्ञान के साथ न जोड़ना, बहुत ही कठिन साधना है। इस साधना के लिए, ज्ञान की समाधि के लिए हमें द्रष्टाभाव का अभ्यास करना होता है। वेदान्त की भाषा में कहूँ तो द्रष्टाभाव और जैन परिभाषा में कहूँ तो शुद्ध उपयोग अवस्था।
हमारी चेतना का उपयोग बिलकुल शुद्ध रहे। उसमें कोई भी अशुद्धता ने आये। पुण्य का भाव भी न आये । शुद्ध का मतलब है-जहाँ शुद्ध भाव भी नहीं, पुण्य का भाव भी नहीं। यह संवर की स्थिति है। इस शुद्धता की स्थिति का क्रम निरन्तर चालू रहे, अभ्यास चालू रहे तो ज्ञान की समाधि प्राप्त होती है। चेतना को केवल शुद्ध व्यापार में रखना कोई साधारण बात नहीं है। आदमी बहुत जल्दी प्रभावित होता है घटनाओं से। सामने जो घटना आती है, उसी में बह जता है। राग की आती है तो राग में और द्वेष की आती है तो देष में बह जाता है। देखकर भी बह जाता है क्योंकि उसमें भावुकता है, संवेदनशीलता है। आदमी संवेदनशील होता है। साहित्य में संवेदनशीलता बहुत बड़ा गुण माना जाता है। कहीं भी कुछ घटित होता है, तो आदमी का मन संवेदना से भर जाता है। आदमी हर बात को अपने साथ जोड़ लेता है। यहाँ से कठिनाई प्रारम्भ हो जाती है। इससे बचने के लिए उसे संवेदना से बचना होगा; इसलिए जो कोई भी सत्य का शोधक होगा, उसके लिए अनिवार्य शर्त है कि उसमें संयम का बल हो। जिसमें संयम का बल नहीं है, वह सत्य का शोधक नहीं हो सकता; क्योंकि जो सत्य
तीर्थकर : जून १९७५/१७८
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