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________________ तटस्थ भाव, साक्षीभाव, द्रष्टाभाव और ज्ञान-समाधि-ये सब एकार्थक शब्द हैं। कोई अन्तर नहीं है। शब्दों का अन्तर है। द्रष्टाभाव का मतलब है--घटना घटित हो रही है, उससे अपने आपको अलग कर देना। उसमें लिप्त नहीं होना। कुछ भी घटित हो रहा हो, उसके साथ अपने ज्ञान के सूत्र को नहीं जोड़ना। यही द्रष्टाभाव या साक्षीभाव है। यह स्थिति जिसे प्राप्त हो जाती है, वह अपने ज्ञान को केवल ज्ञान रखना चाहेगा और वेदन से दूर रहने की क्षमता जिसमें आ जाती है, वह सचमुच ज्ञान-समाधि पा लेता है। यह कठिन बात अवश्य है। पढ़ना अलग बात है और ज्ञान-समाधि अलग बात है। पढ़ना ज्ञान-समाधि नहीं है। ज्ञान-समाधि साधना है। दशवैकालिक सूत्र में ज्ञान-समाधि का बहुत सुन्दर क्रम प्रतपादित है। उसमें चार बातें मुख्य हैं। पहले होता है ज्ञान । उसका फलित होता है, चित्त की एकाग्रता। ज्ञान का परिणाम होगा एकाग्रचित्तता । जो ज्ञान होगा, उसमें चंचलता हो नहीं सकती। सारी चंचलता आती है वेदना के द्वारा। ज्ञान में चंचलता नहीं। संवेदन चंचलता पैदा करता है। घटना से हम जुड़ जाते हैं तब संवेदन आता है, क्षोभ आता है और तब मन तरंगित हो जाता है। जब कोरा ज्ञान होता है, उसमें वह स्थिति नहीं होती। उसका तीसरा परिणाम है--स्थितात्मा। चंचलता समाप्त हो जाती है। साधक स्थितात्म हो जाता है। राग और द्वेष मन को अस्थिर बनाते हैं। जब दोनों नहीं होते तब साधक सत्य में स्थित हो जाता है। वह स्वयं स्थित होकर दूसरों को भी सत्य में स्थित करता है। ये चार बातें हैं १. विशुद्ध ज्ञान होना। . २. एकाग्रचित्त होना। ३. स्वयं सत्य में प्रतिष्ठित होना। ४. दूसरों को सत्य में प्रतिष्ठित करना। ज्ञान-समाधि की परिपूर्णता की ये चार बातें हैं। साधक को इनका अभ्यास करना चाहिये। योगशास्त्र में अन्नमयकोष, प्राणमयकोष और मनोमयकोष के पश्चात् विज्ञानमयकोष बतलाया है। विज्ञानमयकोष का अर्थ है--विज्ञान शरीर । कोष का अर्थ है शरीर । ज्ञान' शरीर, बुद्धि शरीर या मस्तिष्क के पीछे जो सूक्ष्म शरीर है--यह विज्ञानमय कोष है। हमारे शरीर के ऊपर का जो भाग है, वह ज्ञान से सम्बन्धित है। यह ज्ञान-क्षेत्र है। पृष्ठरज्जु या कटि का जो क्षेत्र है, वह है कामक्षेत्र। ये दो मुख्य केन्द्र हैं-ज्ञान-केन्द्र और काम-केन्द्र । जब ज्ञानधारा ऊपर से नीचे की ओर प्रवाहित होने लग जाती है तब मन की चंचलता, इन्द्रियों की चंचलता, वासनाएँ और आवेग, क्षोभ और उदासियाँ—ये सारी स्थितियाँ बनती हैं। जब काम-केन्द्र की ऊर्जा को ऊपर ले जाते हैं या ज्ञान-केन्द्र में ले जाते हैं या ज्ञान-केन्द्र से नीचे नहीं उतरने देते तब स्थितात्मा हो जाते हैं। इस स्थिति तीर्थकर : जून १९७५/१७६ . . . . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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