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'मनुष्य मानवता रख कर भी मनुष्य है । मानवता में सभी धर्म, सिद्धांत, सुविचार, कर्तव्य, सुक्रिया आ जाते हैं । मानवता सत्संग, शास्त्राभ्यास एवं सुसंयोगों से ही आती है और बढ़ती है। मनुष्य हो तो मानव बनो।'
'मनुष्य हो तो मानव बनो'--इस टुकड़े पर हमारा ध्यान जाना चाहिये । मानव बनना एक प्रक्रिया है जिसमें से सारे मनुष्य नहीं गुजर रहे हैं। गुजर भी रहे हों तो सारे समय नहीं गुजर रहे हैं । मारबल को एक बार तराश कर अच्छा शिल्पी कायम करने के लिए बढ़िया प्रभावी वीतरागी मूर्ति गढ़ सकता है, लेकिन मनुष्य के जीवन का तो ऐसा नहीं होता। उसे तो निरन्तर खुद को गढ़ते ही रहना पड़ता है। हर समय उसके आसपास निकम्मी चीजें ढेर की ढेर आती हैं। काँटे उगते ही रहते हैं। विष बनता ही रहता है। विकारों का तूफान उठता ही रहता है। ऐसे में जीवनशिल्पी क्या करे? क्या यह जरूरी नहीं है कि उसकी छैनियाँ निरन्तर चलती रहनी चाहिये। जितना निकम्मा हिस्सा उसके मन के आसपास उगता जाए वह अपनी छैनी से उसे काटता जाए। 'शब्द' ही मनुष्य की छैनी है-वे शब्द जिनके सहारे वह अपने जीवन में उतरा है। हर मनुष्य के पास कुछ वचन हैं, जो उसके लिए आराध्य बने हैं। पर महज शब्दों से कुछ नहीं होगा। शब्द तभी कारगर होते हैं जबकि आप उन्हें जीयें। शब्दों को केवल बोलेंगे या लिखेंगे--भले ही आप शिलाओं पर लिखें या ताँबे की मोटी प्लेटों पर खोद लें--तो भी वे निकम्मे ही साबित होंगे। मनुष्य के जीवन का यह राज श्री राजेन्द्रसूरि समझ गये थे, अतः उन्होंने जैनागम की सारी शब्द छैनियाँ एकत्र की, उनके सही अर्थ खोजे और शब्द निकम्मे नहीं हो जाएँ, ढपोरशंख नहीं बने रहें, अत: उन्होंने शब्दों को जीना शुरू किया और धीरे-धीरे वे कई बढ़िया शब्द अपने जीवन में उतार ले गये।
यह सब उन्होंने ऐसे युग में किया जब शब्द उतने निकम्मे नहीं हुए थे, उपने फाजिल नहीं बने थे, उतने ढपोरशंख साबित नहीं हो सके थे, जितने आज हो गये हैं, आज हम मृत शब्दों को लादे-लादे चल रहे हैं और साथ ही जिन शब्दों के शव हमारे कंधों पर पड़े हैं उन्हीं का जय-जयकार उच्चार रहे हैं। दूसरी ओर हमें पता ही नहीं चला कि कुछ शब्द कब बेड़ियाँ बन कर हम से चिपक गये हैं और जो मनष्य के जीवन को निरन्तर कुचल रहे हैं। आज हमें किसी राजेन्द्रसूरि की फिर जरूरत है। हमें जब अपने तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनाने वाले शिल्पी नहीं चाहिये । बहुत मारबल बिगाड़े हैं हमने । मूर्तियों से मंदिर पाट दिये हैं। हमें अब जीवन शिल्पी चाहिए। यह काम खुद ही हमें अपने लिए करना होगा--शब्द जीने होंगे। जो बोल रहे हैं, भेज रहे हैं, पूज रहे हैं, जिन शब्दों की जय-जयकार कर रहे हैं वे सब अपने ही जीवन में प्रतिपल-प्रतिक्षण उतारने होंगे। ऐसा नहीं करेंगे तो वे सारे मारक शब्द जो हम बोल तो नहीं रहे हैं, पर जिन्हें हम जी रहे हैं, मनुष्य को खा जाएँगे। 'शब्द-योगी' श्रीमद् सूरि का जीवन हमें यही संदेश दे रहा है। -
तीर्थंकर : जून १९७५/१८
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