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बुखार नहीं है । बुखार है तो सारे शरीर में है और नहीं है तो कहीं नहीं है । यह जीवनविज्ञान है; परन्तु मनुष्य ने अपने पल बाँट लिये हैं । उसकी इबादत के घंटे पाक - पवित्र हैं और बाकी के घंटों की उसे परवाह नहीं है । सूरि कहते हैं ऐसा नहीं चलेगा । आपको सारे समय जागरूक रहना होगा । उन्होंने एक बढ़िया फारमूला दिया :
अच्छे स्वास्थ्य के लिए
मर्यादित भोजन
अच्छे जीवन के लिए
अनिन्दा, प्रेम और सहकार शुद्ध विचार और आचार
आत्म विकास के लिए
वे पूरे जीवन यह मानते रहे कि 'गुणविहीन नर पशु के समान है ।' जैनियों ने कल्पवृक्ष की कल्पना की है । उनकी माइथॉलाजी -- पुराणों कुछ स्वर्ग ऐसे हैं जहाँ के देवताओं को सारी उपलब्धियाँ कल्पवृक्ष से होती है । अब आप देवता बन जाएँ कभी तो स्वर्ग के कल्पवृक्ष का आनन्द लीजियेगा; लेकिन मनुष्य के पास तो ऐसा कोई पेड़ नहीं है जो उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर दे । यदि कोई हो सकता है तो सूरिजी की भाषा में-- 'मनुष्य का कल्पवृक्ष है संयम' । तीन शब्दों का यह छोटा-सा वाक्य आपको पुरुषार्थ के मैदान में खड़ा कर देता है । यही पुरुषार्थ उस महापुरुष ने जीया और अपनी करनी से शब्दों को पुष्ट करता गया । श्री राजेन्द्रसूरिजी ने बहुत लिखा है । जीवन जीते गये और अनुभूत बातें लिखते गये । वे जीवन-शिल्पी थे । शब्द की छैनी लेकर जमीन गढ़ने में लगे थे । उनके द्वारा व्यक्त विचारों का थोड़ा जायजा लीजिये :
'हाथों की शोभा सुकृत- दान करने से, मस्तिष्क की शोभा हर्षोल्लासपूर्वक वंदन-नमस्कार करने से, मुख की शोभा हित-मित और प्रिय वचन बोलने से, कानों की शोभा आप्त पुरुषों की वचनमय वाणी श्रवण करने से, हृदय की शोभा सद्भावना रखने से, नैत्रों की शोभा अपने इष्टदेवों के इन बातों को भली विधि समझ कर जो इनको कार्यरूप में है वही अपने जीवन का विकास करता है ।'
दर्शन करने से है ।
परिणत कर लेता
'शास्त्रकारों ने जाति से किसी को ऊँच-नीच नहीं माना है, किन्तु विशुद्ध आचार और विचार से ऊँच-नीच माना है । जो मनुष्य ऊँचे कुल में जन्म लेकर भी अपने आचार-विचार घृणित रखता है वह नीच है और जो अपना आचारविचार सराहनीय रखता है वह नीच कुलोत्पन्न होकर भी ऊँच है ।'
'दूसरों के दोष देखने से कुछ हाथ नहीं आयेगा ।'
'परिग्रह - संचय शांति का दुश्मन है, अधीरता का मित्र है, अज्ञान का विश्राम स्थल है, बुरे विचारों का कोड़ोद्यान है, घबराहट का खजाना है, लड़ाई - दंगों का निकेतन है, अनेक पाप कर्मों की कोख है और विपत्तियों की जननी है ।'
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श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर - विशेषांक / १७
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