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________________ ही देखिये और बुद्ध एवं महावीर की अथवा इनके पूर्व के श्रमणों की चर्या को देखिये तो आपको श्रमणों में वीतराग भाव का प्राधान्य मिलेगा, किन्तु ब्रह्मर्षि में नहीं। ब्रह्मज्ञ रूप में सुप्रसिद्ध होते हुए भी याज्ञवल्क्य को, भरी सभा से उठ कर गौओं को हंकाल ले जाते समय, अपने सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी होने का अभिमान करते हम पाते हैं, यही नहीं अपितु इतनी गौओं का परिग्रह स्वीकार करते हुए उनका ब्रह्मज्ञान उन्हें जरा भी कुण्ठित नहीं करता है। पक्षान्तर में श्रमण-धर्म का सहज भाव से परिचय होते ही बुद्ध और महावीर दोनों ही घर-गृहस्थी और समस्त परिग्रह-त्याग अनगार-भिक्षुक बन जाते हैं। ब्रह्मचर्य होते हुए भी ऋषि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ थीं और अपनी सम्पत्ति के विभाजन का प्रश्न भी उनके सामने था । इस प्रकार के परिग्रहधारी को श्रमणों में कभी भी आत्मज्ञानी-ब्रह्मज्ञानी की उपाधि मिल नहीं सकती है। यही भारी अन्तर श्रमण और ब्राह्मण में था, जो आज भी है। संन्यास को एक आश्रम रूप में स्वीकार कर लेने पर भी ब्राह्मण-परम्परा में महत्त्व तो गृहस्थाश्रम का ही सर्वाधिक रहा। पक्षान्तर में श्रमणों की संस्था सदा एकाश्रमी ही रही। उसमें संन्यास को महत्त्व दिया दूसरे किसी भी आश्रम को नहीं। संन्यास की पूर्व तैयारी के लिए भी गृहस्थाश्रम अनिवार्य नहीं माना गया है। यही नहीं, वह तो सदा ही त्याज्य है। इसी अन्तर के कारण में से श्राद्धादि की कल्पना और सन्तानोत्पत्ति की अनिवार्यता ब्राह्म धर्म में मान्य हुई जबकि श्रमणों में ऐसी किसी भी कल्पना को कोई स्थान ही नहीं मिला है। ब्राह्मण-धर्म में यज्ञ-संस्था के प्राधान्य के साथ-साथ ही पुरोहित-संस्था का भी प्रादुर्भाव हुआ और उसी के फलस्वरूप ब्राह्मण-वर्ण श्रेष्ठ और अन्य वर्ण हीन, यह भावना भी प्रचलित हुई। अत: समाज में जातिगत उच्चता-नीचता मान्य हुई और इसने धर्म-क्षेत्र में भी अपने पैर जमा दिये । फलत: मनुष्य-समाज के टुकड़ेटुकड़े हो गये। पक्षान्तर में श्रमणों में पुरोहित नाम की किसी संस्था के प्रादुर्भाव का अवकाश ही नहीं था। यह अन्तर होते हुए भी दोनों के मिलन के परिणामस्वरूप जिस जातिगत उच्चता-नीचता का श्रमण-सिद्धान्त से कोई मेल ही नहीं है, उसे श्रमणों का प्रमख सम्प्रदाय जैनों ने बहुतांश में स्वीकार कर लिया हालांकि प्राचीन काल में ऐसा कोई भेद श्रमण याने जैन संघ को मान्य नहीं था। यही कारण है कि आज श्रमण-जैन संघ भी जातिवाद के भूत से पूर्ण अभिभूत है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि जातिवादी ब्राह्मण-सम्प्रदाय में मध्यकाल में ऐसे अनेक सम्प्रदाय और सन्त हए कि जिन्होंने जातिगत उच्चता-नीचता को जरा भी महत्त्व नहीं दिया। यह ब्राह्मण-सम्प्रदाय पर जहाँ श्रमण-भावना की विजय मानी जा सकती है, वहाँ आज के जैनों का जातिवाद श्रमणों की स्पष्ट पराजय है। ___निवृत्ति और प्रवृत्ति के कारण श्रमण और ब्राह्मण परम्परा में एक महत्त्व का अन्तर है। श्रमणों का समग्र आचार जहाँ निवृत्ति-प्रधान है, वहाँ ब्राह्मणों का तीर्थंकर : जून १९७५/१७० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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