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अभिधान-राजेन्द्र कोश में आगत कुछ शब्दों की निरुक्ति
D डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री ___ शब्द-कोशों की परम्परा में “अभिधान राजेन्द्र” यथार्थ में एक विशिष्ट उपलब्धि है। तपागच्छीय श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि की जीवन-साधना का यह ज्वलन्त उदाहरण है। सात भागों में तथा दस हजार पाँच सौ छियासठ पृष्ठों में प्रकाशित यह कोश वस्तुतः एक विश्वकोश के समान है, जिसमें जैनागमों तथा विभिन्न दार्शनिक ग्रन्थों के उद्धरण संकलित कर विस्तृत विवेचन किया गया है। इस महान् कोश का संकलन कार्य मरुधर प्रान्त-स्थित सियाणा नगर में वि. सं. . १९४६ की आश्विन शुक्ल द्वितीया के दिन प्रारम्भ किया गया था। यह वि. सं. १९६० चैत्र शुक्ल त्रयोदशी भगवान महावीर-जयन्ती के दिन सूर्यपुर (सूरत) गुजरात में निर्मित हो कर सम्पूर्ण हुआ है। लगभग साढ़े चौदह वर्षों की अविश्रान्त अनवरत साधना के परिणामस्वरूप यह आज बृहत् कोश के रूप में विद्यमान है। इसमें साठ हजार शब्दों का संकलन है। अधिकतर शब्दों की व्याख्या तथा निरुक्ति की गयी है। इसमें केवल सूरीश्वर महाराज जी की विशिष्ट ज्ञान-साधना ही नहीं, वरन् श्रीमद् धनचन्द्रसूरिजी, मुनिश्री दीपविजयजी और मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी आदि की दीर्घ साधना भी परिलक्षित होती है। "अभिधान राजेन्द्र” कोश का प्रथम भाग १९१३ ई. में और सप्तम भाग १९३४ ई. में रतलाम (म. प्र.) से प्रकाशित हुआ था।
"अभिधान राजेन्द्र" कोश में व्याख्या-भाग अधिक है। कई शब्दों की व्याख्या में सन्दर्भ पुरःसर कथाओं का भी वर्णन है। केवल "शब्दाम्बुधि" कोश में वर्णानुक्रम से प्राकृत भाषा के शब्दों के संकलन के साथ संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है। "अभिधान-राजेन्द्र" में प्राकृत का संस्कृत अनुवाद मात्र है। इस कोश की मुख्य विशेषता यही है कि इसमें शब्दों की निरुक्ति भी दी गयी है। यथार्थ में निरुक्ति के अभाव में कोश शब्द-संग्रह मात्र हो जाता है। निरुक्ति से भाषा के भण्डार को समझने में बहुत बड़ी सहायता मिलती है। हम यहाँ पर कुछ शब्दों की निरुक्ति प्रस्तुत कर रहे हैं, जिनमें जैन दर्शन की आत्मा सन्निहित है । . अणेगंत-अनेकान्त-त्रि.। न एकान्तो नियमोऽव्यभिचारी यत्र। अनियमे, अनिश्चितफलके च। अम्यते गम्यते निश्चीयते इत्यन्तो धर्मः। न एकोऽनेकः । अनेक
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१४७
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