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माध्यम नहीं हैं शब्द
कुछ शब्द घिस-घिसाके अनीदार हो गये। छटे तो छूटते ही आरपार हो गये ।।
चलते हए उतार में फिसले जो देवता ! . कल तक के राव आज के प्रतिहार हो गये।
हम सबके ये पितर हैं करे कौन पिंडदान ? वटवृक्ष ये पीपल-से हवादार हो गये ।
जो शान पर चढ़े हैं समय ही करेगा तय
सप्तक खटाऊ हैं कि तार-तार हो गये। खोटे चले खरे को चलन से निकालकर कुछ सुखियों में छपके समाचार हो गये।।
कितनी है आनबान कि झुकते नहीं तनिक
शायद ये शब्द ब्रह्म हैं साकार हो गये ।। अनुभूति से चले ये जो अभिव्यक्ति के हुए, भाषा को दें दुआ कि कलाकार हो गये।
सोचा न विचारा कहीं इनके बिना कभीबच्चे नहीं हैं शब्द समझदार हो गये ।।
माध्यम नहीं हैं मात्र कि ओढा बिछा लिया. हम इन-से जब हुए तो लगातार हो गये ।।
D नईम
तीर्थंकर : जून १९७५/१४६
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