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________________ श्चाऽसावन्तश्चानेकान्तः । स आत्मा स्वभावो यस्य वस्तुजातस्य तदनेकान्तम् । ( जिल्द १, पृ. ४२३ ) अनेकान्त का अर्थ है -- अनेक धर्म वाला । यह कोई अनिश्चितता नहीं है । जिससे एक नहीं, अनेक धर्म निश्चित किये जाते हैं, उसे अनेकान्त कहते हैं । वस्तु अनेकधर्मी है। अनेकान्त आत्मा का स्वभाव है । अब्भुट्ठाण -- अभ्युत्थान-न । आभिमुख्येनोत्थानमुद् गमनमभ्युत्थानम् । तदु चितस्यागतस्य अभिमुखमुत्थाने । ससंभ्रमासनमोचने। आसन से उठ कर आगत् व्यक्ति की विनय करना, स्वागत सत्कार करना । उठ करके सामने जाना यह 'अभ्युत्थान' शब्द का निरुक्तिमूलक अर्थ है । (१.६९३) अभिग्गह —— अभिग्रह – पुं. । आभिमुख्येन ग्रहोऽभिग्रहः – निशीथचूणि २.उ. । afra इत्यभिग्रहः । प्रतिज्ञाविशेषे, आव. ६ अ. । (१.७१४ ) विशेष रूप से प्रतिज्ञा लेना 'अभिग्रह' है । 'अभिग्रह' शब्द का अर्थ हैमुख्य रूप से ग्रहण करना । अरहंत — अर्हत् - पुं. । अर्हन्ति देवादिकृतां पूजामित्यर्हन्तः । अथवा नास्ति रहः प्रच्छन्न किञ्चिदपि येषां प्रत्यक्षज्ञानित्वा तेऽरहन्तः । शेषं प्राग्वत् । एते च सश्या अपि भवन्तीति । स्था नांग ३, ठा. ४ उ । अमरवरनिर्मिताऽशोकादिमहाप्रातिहार्यरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः । अविद्यमान रहस्येषु, अनु. । दशा. १ अ. । पं. सू. । (१.७५५) “अरहंत” शब्द 'अर्ह,' धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है पूजा । जो देव, इन्द्र आदि के द्वारा पूजे जाते हैं, उन्हें अर्हन्त कहते हैं । जिनको पूर्ण ज्ञान (कैवल्य) की उपलब्धि हो जाने के कारण कुछ भी प्रच्छन्न नहीं रह जाता, वे अरहन्त हैं । जिनके महाप्रातिहार्य प्रकट हो जाते हैं और देव जिनकी पूजा करते हैं, वे अर्हन्त हैं । अप्पा -- आत्मन् - पुं. । अतति सातत्येन गच्छति ताँस्तान् ज्ञानदर्शनसुखादिपर्यायानित्याद्यात्मादि शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तसम्भवात् । ( १, ६१६ ) जो सतत गमन करता है, वह आत्मा है । जो ज्ञान, दर्शन, सुख आदि पर्यायों के साथ नित्य तथा परिणमनशील है, उसे आत्मा कहते हैं । आगम — आगम-पुं । आ-गम् - धन । आगतौ प्राप्तौ च । वाच. । “जेण आगमो होइ”।।३२।। आप्तवचनादाविर्भूतमर्थं संवेदनमागमः इति । (२.६१ ) 'आगम' शब्द का अर्थ है - आया, प्राप्त हुआ । सच्चे देव के द्वारा कही हुई वाणी से प्रसूत अर्थ 'आगम' है। आय—– आय-पुं.। आगच्छतीत्यायः । द्रव्यादेर्लाभ, सूत्र. १, श्रु. १०, अ. १० गाथा टीका । (२. ३२० ) जो आता है, उसे 'आय' कहते हैं । द्रव्य आदि का लाभ होना । तीर्थंकर : जून १९७५/१४८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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