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________________ दिनकर सोनवलकर लगता था अब वाणी थम जाएगी नहीं मिलेंगे शब्द अभिव्यक्ति के लिए। और मैं भीतर -ही- भीतर सिमटने लगा गुमसुम ; पूरी तरह हताश । पस्त-हिम्मत कि अब शब्दों से मेरी यारी हमेशा के लिए छूट जाएगी साथ रह जाएगी सिर्फ दुनियादारी। और मैं चुप हो गया देखता रहा अपने को दूसरों की निगाहों से। तभी अचानक चेतना के खण्डहर में अकस्मात् दरारें पड़ी और आश्चर्य से देखा मैंने " कि शब्दों के खजाने दबे पड़े हैं। न शब्द चुके थे न उन्होंने छोड़ा था मेरा साथ । वे बस मेरे धीरज का इम्तहान लेने छिप गये थे। इम्तहान मेरी बातों के मर्म तक तुम पहुँच जाते हो अनायास। इसलिए नहीं कि उनमें कोई मौलिकता है; सिर्फ इसलिए कि तुम्हारे भीतर ही कहीं हैं उस अनुभव के ___मूल संदर्भ जिनमें बँध कर मेरी ध्वनि-लहरियाँ हो उठती हैं सार-गर्भ। रस-ग्रहण तीर्थंकर : जून १९७५/१४४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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