SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्द वाचक है -- " कालादिभेदेन ध्वनेरर्थाभिदं नामस्थापनाद्रव्यजीवभेदात् चतुर्धा शब्दः ।” नाम से शब्द चार प्रकार का है। शब्द के और भी भेद हैं- शब्द दो प्रकार का है : भाषाशब्द, नोभाषाशब्द | भाषाशब्द के भी दो भेद हैं- -- अक्षरसम्बद्ध और नो अक्षरसम्बद्ध । नो भाषा - शब्द के भी दो भेद हैं—— आयुज्य- शब्द तथा नोआयुज्य - शब्द । ( सूत्र कृतांग. ८१ ) ७. नय भी शब्द है । अभिप्राय विशेष को शब्दों के द्वारा प्रकट किया जाता है, इसलिए उपचार से नय को भी शब्द कहा जाता है । जैसे वस्तु के पास में होने पर 'परिग्रही' कहा जाता है । वास्तव में वह वस्तु हमारे भीतर नहीं चली जाती है, उपचार से ऐसा कहा जाता है । इसी तरह से नय को भी शब्द उपचार से कहते हैं- प्रतिपद्यमाने शब्दे -- शब्दनिक्षेपः स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद सवणं सपइ स तेणं, व सप्पए वत्थु जं तओ सहो । तस्सत्थपरिग्गहओ, नओ वि सहो त्ति हेउत्व ॥ २२२ ॥ ( अभिधान - राजेन्द्र, खण्ड १, पृ. ३६७ ) ८. शब्द पौद्गलिक है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि गन्ध द्रव्य, सूक्ष्म रज तथा धूम की भाँति शब्द भी पुद्गल की पर्याय है । शब्द स्वयं और शब्द की उत्पत्ति भौतिक है । शब्द भौतिक प्रक्रिया से गुजर कर ही हम तक पहुँचता है । ९. शब्द सामान्य- विशेष दोनों है । वास्तव में सभी पदार्थ सामान्य - विशेष रूप हैं। सामान्य व्यापक नहीं है । इसलिए सामान्य के विशेष से अभिन्न होने पर अनेक सामान्य और विशेष के सामान्य से अभिन्न होने पर विशेष भी एक रूप होते हैं । विशेष भी सामान्य से एकान्ततः भिन्न नहीं हैं। प्रमाण की अपेक्षा से एक ही पदार्थ में सामान्य और विशेष, एक और अनेक कथंचित् विरुद्ध कहे जा सकते हैं, किन्तु सर्वथा विरुद्ध कहना असिद्ध है । शब्दत्व सब शब्दों में एक होने के कारण एक है और शंख, धनुष, तीव्र, मन्द, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि के भेद से अनेक है । १०. शब्द नित्यानित्यात्मक है । नित्य शब्दवादी मीमांसकों के मत के अनुसार शब्द सर्वथा एक है और अनित्य शब्दवादी बौद्धों के अनुसार शब्द सर्वथा अनेक हैं । परन्तु प्रत्येक वस्तु स्वरूप से विद्यमान है, पर रूप से विद्यमान नहीं है । आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने भी कहा है - " वाचक वाच्य से भिन्न भी है और अभिन्न भी है ।" इस प्रकार जैन-दर्शन में सभी दर्शनों की मूलगामी दृष्टि को सामने रख कर शब्द की मीमांसा विस्तार से की है । 'अभिधान राजेन्द्र' में आगम ग्रन्थों के महत्त्वपूर्ण अंशों का संकलन उद्धरण रूप में लक्षित होता है । शब्द-मीमांसा पर भी विभिन्न अंश संकलित हैं । उन सबका दिग्दर्शन कराना न तो इस छोटे-से लेख में सम्भव है और न इष्ट है । Jain Education International श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर - विशेषांक / १४३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy