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रूप में स्वीकार किया है। शब्दाद्वैतवादी अखिल प्रत्ययों को शब्दानुविद्ध सविकल्पक मानते हैं। भर्तहरि के वचन हैं :
न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादते। अनुविद्धमिवाभाति सर्व शब्दे प्रतिष्ठितम ॥
(वाक्यपदीय १; १२४) जैन-दर्शन की यह विशेषता है कि प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण की भाँति शब्द तथा व्यवहार को भी प्रमाण माना गया है। लोक में जो व्यवहार प्रत्यक्ष अनुभव में आता है, उसे भी प्रमाण कहा गया है। यदि सभी प्रकार का ज्ञान शब्दानुविद्ध माना जाए, तो अर्थ शब्द से अभिन्न हो जाएगा या फिर दोनों में तादात्म्य मानना होगा; परन्तु अर्थ शब्द से निकलता है, शब्द कान से सुना जाता है, ध्वनियाँ अनुक्रम से सांकेतिक रूप में उच्चरित होती हैं, यह व्यवहार-सिद्ध है। शब्द के उत्पन्न होने की एक प्रक्रिया है, जो भौतिक है। इसलिए शब्दमात्र को नित्य मानना उचित नहीं है। इस विषय को ले कर जैनदर्शन में शब्द-मीमांसा विस्तार से की गयी है। इस शब्द-मीमांसा में सभी भारतीय दर्शनों की समालोचना कर अनेकान्त की भूमिका पर जैन-दृष्टि प्रस्तुत की गयी है। वस्तुतः यह एक स्वतन्त्र शोध-अनुसन्धान का विषय है। वर्तमान समय में अमेरिका में जो अनुसन्धान हुए हैं, उनसे यह एक अधुनातन विज्ञान बन चका है और भाषा-शास्त्रीय दर्शन (लिंग्वस्टिक फिलॉसफी) के रूप में सतत् विकसित हो रहा है।
श्रीमद् राजेन्द्ररि ने “अधिधान राजेन्द्र" में 'सह' (शब्द) शीर्षक के अन्तर्गत (पृ. ३३८-३६६) शब्द का विस्तृत अनुशीलन किया है। उनकी मख्य प्रतिपत्तियाँ इस प्रकार हैं :
(१) शब्द विकल्पात्मक है, इसलिए शब्दार्थ का अपोह नहीं हो सकता। (२) अनमान की भाँति शब्द भी प्रमाण है। ( ३ ) शब्द आकाश का गण नहीं है। ( ४ ) शब्द भाव और अभाव रूप दोनों है। ( ५ ) शब्द बाह्य अर्थ का वाचक है, अन्यथा संकेतित नहीं हो सकता है। ( ६ ) शब्द अनेक रूप हैं--"सहाई अणेगरूवाई अहिआसए"। (७) नय (अभिप्राय) भी शब्द है--"इच्छई विसेसियतरं, पच्चुप्पन्न
नओ सहो'। (८) शब्द पौद्गलिक है। शब्द पर्याय का आश्रय भाषा-वर्गणा है। (९) शब्द सामान्य-विशेष दोनों है। (१०) शब्द नित्यानित्यात्मक है।
तीर्थंकर : जून १९७५/१४०
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