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________________ श्रीमद् निरन्तर श्रमशील रहे। लोककल्याण और आत्म-श्रेय के जीवनमन्त्र से वे निरन्तर अभिषिक्त रहे। 'श्राम्यति इति श्रमण' :-जो समीचीन श्रम करते हुए श्रान्त होते हैं वे श्रमण हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश की निरुक्ति के अनुसार 'श्रममानयति पंचेन्द्रियाणि मनश्चेति वा श्रमणः ।' 'श्राम्यति संसारविषयेषु खिन्नो भवति तपस्यति वा श्रमणः ।' 'श्रमुः तपसि खेदे च' पाँचों इन्द्रियाँ तथा मन को तप: श्रम से श्रान्त करने वाले, अथवा संसार विषयों से उपरत होने वाले तपोनिष्ट संन्यासी श्रमण कहे जाते हैं। __ श्रीमद विजयराजेन्द्रसूरीश्वजी ने 'अभिधान राजेन्द्र' में वर्णित उस श्रमण शब्द की निरुक्ति के अनरूप अपने जीवन को जीया। इनकी कथनी व करनी में कोई भेद-रेखा नहीं थी। बाह्याभ्यन्तर में वहाँ कोई अवगण्टन नहीं था। इनकी दैनंदिनी आराधना एक खुली पुस्तक थी। वे आत्मप्रसिद्धि से विरक्त थे। निरर्थक विवादों में उलझकर अपने लक्ष्य से वे कभी च्यत नहीं हुए। श्रीमद् की महती भावना थी कि यह कोश उनके जीवन-काल में छपकर तैयार हो जाए। उन दिनों लीथो प्रेस का प्रचलन हुआ ही था। कोश का एक फार्म छाप कर श्रीमद को बतलाया भी गया; किन्तु वह संतोषप्रद न होने से रोक देना पड़ा। गुरुदेव के देह-विलय (सन १९०६) के पश्चात् लगभग चार लाख की लागत में 'जैन प्रभाकर प्रेस' की स्थापना मालवा रतलाम में इस कोश की छपाई हेतु की गयी। लगातार सत्रह वर्षों तक इस कोश की छपाई का कार्य श्रीमद् के दीक्षित मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी एवं मुनि श्री दीपविजयजी के देख-रेख में पूर्ण हआ। उक्त मनिद्वय ने कोश-प्रकाशन के समस्त दायित्व का अन्ततः वहन कर अपनी आदर्श गुरु-भक्ति का परिचय दिया था। _ 'अभिधान राजेन्द्र' कोश १५' x ११” साइज के सात बड़े भागों में प्रकाशित है जिनकी कुल पष्ठ-संख्या लगभग दस हजार है। विद्सम्मत प्राय: सभी उपयोगी रचना प्रणालियों का इसमें समावेश कर इसे सर्वजनोपयोगी बनाया गया है। जैनधर्म, प्राकृत भाषा एवं जैनेतर दर्शन के अध्ययन के इच्छुक देशी-विदेशी अनेक विद्वान् वर्षों की प्रतीक्षा के अनन्तर इस दुर्लभ कोश को पाकर अत्यन्त लाभान्वित हुए; जिसकी उन्होंने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। देश-विदेश के प्रायः सभी प्रमुख ग्रन्थालयों में इसका संग्रह आदर के साथ किया गया है। इसका प्रथम संस्करण अब उपलब्ध नहीं। इसके परिवधित दूसरे संस्करण के प्रकाशन हेतु सम्बन्धित महानुभावों से इस प्रसंग पर अपेक्षा करते हुए श्रीमद् को भावपूरित श्रद्धाञ्जलि! 0 तीर्थंकर : जून १९७५/१३८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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