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________________ . . . . इन सभी कोश-ग्रन्थों के निर्माण में अभिधान राजेन्द्र कोश से न्यूनाधिक सहायता ली गयी है। श्रीमद् की अपेक्षा अभिधान राजेन्द्र की प्रसिद्धि अधिक हुई। एक बार सुप्रसिद्ध गुजराती पत्र में पण्डित बेचरदासजी दोशी की जीवनी प्रकाशित हुई जिसमें भूल से दोशीजी को 'अभिधान राजेन्द्र' का लेखक बतालाया। ऐसी ही एक गम्भीर भूल हाल ही में प्रकाशित गुजराती-भारतीय अस्मिता ग्रन्थ में श्री के. सी. शाह लिखित लेख “प्राकृत भाषा अने साहित्य" में 'अभिधान राजेन्द्र' को श्री विजयेन्द्रसूरि रचित बतलाया है। यह धांधली विचारणीय है। उपरोक्त कोशों का विवरण देने का प्रयोजन मात्र यही है कि प्रेस, संचार साधन, विद्वद् सहयोग, सन्दर्भ-ग्रन्थों एवं लेखन-प्रकाशन की उपादान-विपुलता रहते कई सम्पादकों के सहयोग द्वारा ही पच्चीस-तीस वर्षों के श्रम से इनका निर्माण किया जा सका है। तब 'अभिधान राजेन्द्र' के निर्माण में श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी द्वारा किये गये उस अदम्य पुरुषार्थ की सहज ही प्रतीति हो आती है कि अभावग्रस्त उस जमाने में आत्मसाधना एवं जन-कल्याणहेतू अन्धविश्वासों से निरन्तर संघर्षरत रहते जैन शास्त्रों के निचोड़ स्वरूप इस महानतम विशद कोश-शृंखला का निर्माण उन्होंने क्यों कर किया होगा? जीवन के अन्तिम क्षण तक उनकी कलम अबाध चलती रही; और भी कई शास्त्रों को लोकोपयोगी भाषा में आपने सुलभ किया। श्री हेमचन्द्राचार्य निर्मित 'सिद्धहेमशब्दानशासन में से प्राकृत व्याकरण पर आपने संस्कृत लोकबद्ध विवृति लिखी जो प्राकृत व्याकरण-पाठी के लिए अतीव उपयोगी हैं। इसका प्रकाशन भी 'अभिधान राजेन्द्र' कोश के अन्तर्गत कर दिया गया है। इस महाकोश के निर्माण में लगभग सौ ग्रन्थों से सन्दर्भ लिये गये हैं जो जैन शास्त्र-शृंखला की मर्धन्य कृतियाँ हैं। 'अभिधान राजेन्द्र' मात्र शब्दार्थकोश ही नहीं यह सन्दर्भ-ग्रन्थ भी है, जिसमें शब्दों के विषय में प्रायः उपलब्ध समग्र सन्दर्भो के संकलन किये गये हैं, जिनके आधार से जैन शास्त्र विषयक प्रत्येक अंग में वर्णित शब्दों के विशिष्टार्थों का भी बोध सहज ही हो सकता है। . 'अभिधान राजेन्द्र' कोश मारवाड़ प्रदेश के सियाणा ग्राम में सन् १८८९ के चातुर्मास में आरम्भ कर चौदह वर्ष के सतत् लेखन के उपरान्त सन् १९०३ में सूरत (गुजरात) में समाप्त हुआ। इस मध्यावधि में सूरिजी ने मारवाड़-मेवाड़ मालवा-गुजरात-बनासकांठा के प्रदेशों में सहस्रों मील का तीन बार परिभ्रमण (विहार) किया । आहोर-सियाणा-बड़ीकडोद-रीगणोद आदि की प्रतिष्ठा-अंजन-शलाकाओं के महोत्सव किये। कई मुमुक्षुओं को भगवती दीक्षाएँ दीं। अनेक स्थलों पर धर्म चर्चाओं से निपटना पड़ा तथा 'अभिधान राजेन्द्र' कोश के साथ पाइय सदंबहि नामक प्राकृत कोश और कल्पसूत्रार्थ वालाव बोधिनी प्रभृति अनेक ग्रन्थों का निर्माण आपने किया। अपने आदर्श मुनि-जीवन के अनुरूप ये नित्य अभिग्रह किया करते, जिसके कारण कई बार इन्हें निराहार रहना पड़ता। चातुर्मास काल में एकान्तर चउविहार उपवास-सांवत्सरिक व दीपमालिका को तेला-बड़े कल्प के बेला* और चैत्री-आश्विन की ओलिएँ आप नियमित करते। लेखन-उपकरण में पुरानी देशी कलमें और शुष्क स्याही को प्रात: आर्द्र कर शाम को सुखा दिया जाता था। ऐसी कठोर साधनाओं में 'अभिधान राजेन्द्र' का निर्माण हुआ। __ * बेला-लगातार दो उपवास, तेला-लगातार तीन उपवास, चउविहार उपवासनिर्जल उपवास। श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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