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________________ संग्रह है। ‘अनेकार्थं निघण्ट' नामक तीसरे कोश में वानस्पत्यादिक पदार्थों के शब्दार्थों का संकलन है। देशीनाममाला नामक कोश में प्राकृत किंवा देशीय भाषाओं के शब्दार्थों का संकलन है। ये चारों कोश बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। ___ सेन संघ के आचार्य श्रीधरसेन अनेक राजाओं द्वारा मान्य और विविध शास्त्रों के पारगामी विद्वान् थे। उनका लिखा 'विश्वलोचन कोश', जिसका दूसरा नाम 'मुक्तावली कोश' है तथा जो एक अंत्याक्षरी कोश भी हैं, अपनी कोटि का अद्वितीय संस्कृत पद्यबद्ध कोश है। यह चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में लिखा गया था। कविवर धनंजय के नाममाला कोश पर अमरकीति-कृत भाष्य के साथ स्वरविशिष्ट एकएक अक्षर का अलग-अलग अर्थ बतलाया गया है। इस एकाक्षरी नाममाला के उपरान्त तीन और रचनाएँ निम्न अनुसार पायी गयी हैं--श्री राजशेखर-शिष्य श्रीसुधाकलश ने एकाक्षरी नाममाला नामक कोश पचास पद्यों में रचा। श्री जिनदत्तसूरि के शिष्य श्री अमरचन्द्र ने वर्णमाला क्रम से प्रत्येक अक्षर का अर्थ बतलाते हुए 'एकाक्षरी नाममाला-कोश' की रचना की थी। तीसरी रचना श्री विश्वशम्भ द्वारा ११५ पद्यों में लिखित ऐसा ही एकाक्षरी नाममाला कोश है। श्री विमलसूरि की 'देश्य शब्द समुच्चय' एवं अकारादिक्रम से 'देश्य शब्द निघण्टु' नामक महत्त्वपूर्ण कोश-रचनाएँ सोलहवीं शताब्दी में निर्मित हुईं। श्री रामचन्द्र मूरि का 'देश्य निर्देश निघण्ट' भी इसी प्रकार की कोश-रचना है। अभिधानचितामणि कोश के पूरक रूप में श्री जिनदेव सूरि ने पन्द्रहवीं शताब्दी में 'शिलोच्छनाम माला, नामक एक पूर्तिकोश की लगभग १४० पद्यों में रचना की है। श्रीपुण्यरत्नसूरि का द्वयक्षर कोश कविवर एवं श्री असंग का 'नानार्थ कोश' भी विद्वत्तापूर्ण हैं। श्री हर्षकीर्ति सूरि के 'नाममाला कोश' एवं 'लघुनामामला कोश' पण्डित-भोग्य हैं । तपागच्छाचार्य श्री सूरचन्द्र के शिष्य भानुचन्द्र विजयजी ने 'नामसंग्रह कोश' की रचना की थी। उपाध्याय साधुकीत्ति के शिप्य मुनि सुन्दरगणि ने 'शब्द-रत्नाकर कोश' की रचना की, जो छ: काण्डों और १०११ श्लोकों में है। कविप्रवर श्री बनारसीदासजी ने महाकवि धनंजय की नाममाला के आधार पर 'हिन्दी नाममाला' नामक कोश की १७५ पद्यों में रचना की है। भारत में कोश-साहित्य के निर्माण का कार्य जैन पण्डितों ने यद्यपि हजारबारह सौ वर्ष पूर्व ही आरम्भ कर दिया था तथापि सर्वाधिक-व्यवस्थित अकारादि क्रम से शब्द संकलना व्युत्पत्ति-व्याकरण भेद-विशिष्टार्थ-संस्कृतानुवाद तथा भिन्न आचार्यों द्वारा शब्दों के सप्रसंगोल्लेखपूर्वक विविध अर्थों से युक्त एक ऐसे महाकोश की आवश्यकता समझी जा रही थी जिसके अवलम्बन से जैन शास्त्रों के सम्यक् अध्ययन के उपरान्त प्राचीन भारतीय साहित्य-इतिहास-दर्शन आदि के व्यवस्थित अनुशीलन का कार्य सर्वजनसुलभ हो। विदेशी विद्वानों की देखा-देखी भारतीय प्राचीन विद्याओं के मनन अन्वेषण में अनेक भारतीय पण्डित भी विगत युगों की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठ कर मध्यस्थ भाव से जैनधर्म के ग्रन्थों के अध्ययन श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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