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हैं। वेद संस्कृत भाषा में हैं जबकि तीर्थंकर-प्रवचनों के संकलन आगम अर्धमागधीप्राकृत भाषा में हैं। प्राचीन प्राकृत का संस्कृत रूप ही संस्कृत भाषा है। बहुत प्राचीन काल से इन भाषाओं का हमारे देश में प्राबल्य रहा है। प्रादेशिक भाषाओं के विकास में इनकी शब्द-सम्पदा का प्रच्छन्न उपयोग हुआ है। अप्रमत्त देशाटनविहार से प्रतिबद्ध जैन मुनिगण जनसाधारण में लोकभाषाओं के माध्यम से नियमित उपदेश-धारा बहाते रहे। इस प्रकार प्रादेशिक मर्यादाओं के रहते हुए भी आचार-विचार और भाषा-विषयक एकसूत्रता देश में अखण्ड रहीं।
_ लोकभाषाओं के सर्वाधिक सम्पर्क में रहने के कारण जैन मुनियों द्वारा रचित साहित्य में हमारे इतिहास एवं संस्कृति तथा भाषाओं के विकास-क्रम का प्रामाणिक और विशद विवरण उपलब्ध है, जिसके सम्यक् अनुशीलन के अभाव में भारतीय संस्कृति-इतिहास एवं भाषाओं के विकास-क्रम का सही आलेखन सम्भव नहीं है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से उक्त कोशों का बड़ा महत्त्व है। अभिधान चिंतामणि की स्वोपज्ञवृत्ति, श्री हेमचन्द्राचार्य कृत देशी नाममाला, अंगविज्जा, धनंजय-नाममाला पर श्री अमरकीति का भाष्य, इत्यादि कतिपय शब्द-ग्रन्थों में तत्कालीन सांस्कृतिक विकास-सूचक शब्दों की अमूल्य निधि भरी है; जिनके अध्ययन से भाषा-विषयक विभिन्न गुत्थियों का समाधान हो सकता है। अमरकोश आदि संस्कृत के अनेक कोशों का निर्माण जैन लेखकों द्वारा किया गया है; किन्तु प्राकृत एवं देशी भाषाओं के कोश तो मात्र जैन लेखकों द्वारा ही निर्मित हैं। इनके उपरान्त कन्नड़-तमिल-अपभ्रंश-संस्कृत-गुजराती प्रभृति विभिन्न प्राचीन भाषाओं के अनेक पर्यायवाची एवं अनेकार्थवाची शब्द-कोशों की रचनाएँ जैन लेखकों ने की हैं। द्विसन्धान से लगाकर चतुर्विशसन्धान के अनेक ग्रन्थों के उपरान्त कविप्रवर श्री समयसुन्दरगणि निर्मित 'अष्टलक्षीकोश' अनेकार्थवाची रचनाओं में सर्वोपरि अद्भुत रचना है। जिसमें एक वाक्य के आठ लाख से अधिक अर्थ किये गये हैं। इसकी रचना हुए चार सौ से अधिक वर्ष व्यतीत हुए। हमारे कोशसाहित्य पर संक्षेप में यहाँ कुछ विवरण दिया जा रहा है ।
कवि धनंजय ने नाममाला कोश, अनेकार्थनाममाला और अनेकार्थ निघंट नामक तीन कोश-ग्रन्थों का निर्माण किया। विख्यात संस्कृत अमरकोश जैन कवि अमरसिंहजी, जो कुछ प्रमाणों के अनुसार धनंजय के साले थे, द्वारा निर्मित है । प्रचलित अमरकोश में से जैन प्रमाण विषयक कई श्लोकों को हटा दिया गया है । और मंगलाचरण के शान्तिनाथ-वन्दना के श्लोक भी हटा दिये गये हैं। अमरसिंह जी का अस्तित्व नवीं शताब्दी में माना जाता है । कविवर धनपाल ने पाइयलच्छी नामक प्राकृत भाषा का एक सुन्दर पद्यबद्ध कोश वि. सं. १०२९ में लिखा। इनके बाद कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य ने अनेक कोशों की रचना की, जिनमें से अभिधान चितामणि नामक कोश मुख्य है। इसमें एक-एक शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्दों का संकलन है। दूसरा कोश ‘अनेकार्थ संग्रह' में शब्दों के नाना अर्थों का
तीर्थंकर : जून १९७५/१३४
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