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जैन दर्शन : पारिभाषिक शब्दों के माध्यम से डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री
प्रत्येक दर्शन अपनी पारम्परिक पारिभाषिक शब्दावली में निबद्ध परिलक्षित होता है । सभी अपने भावों के अनुसार शब्द को कोई-न-कोई अर्थ तथा साँचा प्रदान करते हैं । अर्थ-बोध की प्रक्रिया समान होने पर भी प्रत्येक युग में शब्दार्थ- सम्पदा परिवर्तित होती रहती है; किन्तु यह केवल बोली के सम्बन्ध में ही चरितार्थ होता है, जीवित भाषा के साहित्य में एक बार उसके रूढ़ हो जाने पर फिर वह अपना विशेष विकास नहीं कर पाती । प्राकृत और विशेष कर मागधी युग-युगों तक जनता की बोल-चाल की भाषा बनी रही और शताब्दियों पश्चात् उसमें साहित्य लिखा गया । केवल साहित्य ही नहीं, दर्शन के तथा अन्य विषयों के उत्कृष्ट ग्रन्थ भी रचे गये । प्राकृत की अपनी दार्शनिक शब्दावली है, जो जैनदर्शन की पारिभाषिक एवं रूढ़ पदावली से संग्रथित है ।
'अभिधान राजेन्द्र कोश' में ऐसे शब्द प्रचुरता से मिलते हैं, जिनसे सहज ही जैन दर्शन तथा जैनधर्म का परिचय मिल जाता है । इस लेख में हमने ऐसे ही कुछ शब्दों का संकलन किया है, जो अधिकतर आज भी परम्परा रूप में प्रचलित हैं; उदाहरण के लिए थुइ (स्तुति), पडिक्कमण ( प्रतिक्रमण ), समझ, सामाइय, ( सामायिक), समायारी ( समाचारी), पडिलेह णा (प्रतिलेखना), थाणग, थानक ( स्थानक ) आदि । इन शब्दों में आज भी श्रमण-संस्कृति जीवित परिलक्षित होती है । इसका अर्थ यह नहीं है कि परम्परागत जीवन समाप्त हो गया है या फिर उसका जीवित निदर्शन नहीं मिलता । यथार्थ में श्रमण-संस्कृति के बिना भारतीय संस्कृति का वास्तविक आकलन नहीं हो सकता । शब्दों का जीवन सुदूरगामी तथा सहस्र शताब्दियों का होता है । इन शब्दों में भारत की अन्तरात्मा आज भी प्रतिबिम्बित हो रही है । भले ही मुख्य रूप से ये जैनों के प्रतीक शब्द हों, पर भाषा, दर्शन व संस्कृति की दृष्टि से इनका विशेष महत्त्व है। ऐसे ही कुछ शब्द 'अभिधान राजेन्द्र' से यहाँ प्रस्तुत हैं
प्रथम खण्ड
अणेगंतवाय = अनेकान्तवाद । पृ. ४२३ - ४४१
अत्त आप्त (देव) पृ. ४९९-५००
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अत्थिवाय = अस्तिवाद । पृ. ५१९ - ५२४
अदत्तादाण - अदत्तादान | पृ. ५२६ - ५४०
तीर्थंकर : जून १९७५/१२६
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