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'सब सोख्यो गयो धूल में
___ जो बहुत-से लोगों के सम्पर्क में आते हैं, उन्हें वाणी को नवनीत में चुपड़कर स्निग्ध रखना चाहिये । किसी सूक्तिकार ने कहा है-'बोलबो न सीख्यो, सब सीख्यो गयो धूल में' यदि किसी ने बहुत सीख लिया किन्तु बोलना नहीं सीखा तो पढ़ा-लिखा सब लि में मिल गया। बोलना, अर्थात् वागात्मक शब्द-भारती का विशिष्ट चयन कर लोक को प्रसन्न मुग्ध कर देना, बड़ा कठिन है। काक निम्बवक्ष पर बैठता है और कट बोलता है, कोकिल रसाल को चुनती है और रससिक्त वाणी बोलती है। शब्दों के उचित व्यवहार पर सुखी जीवन का निर्माण होता है। जो वाणी पर बाण रखता है, लोग उससे त्रस्त रहते हैं। कीर्तिजीवी को शब्दजीवी, अक्षरजीवी कहते हैं। पुरुषायु समाप्त करने पर भी दिवंगत व्यक्ति अक्षरों में जीवित रहता है । 'कीतिर्यस्य स जीवति' -जिसकी कीर्ति लोक में विश्रत है, वह मरकर भी जीवित है। जिसे शब्दों ने धिक्कार दिया, उसको तीन लोक में यशास्विता प्राप्त नहीं होती। सम्यकचारित्रशील को विद्वान्, त्यागी शब्दों द्वारा ही स्मरण किया जाता है। शब्द में शृंगार, वीर, करुण, अद्भुत, हास्य, भयानक, बीभत्स, रौद्र, शान्त सभी रस समाहित हैं। मंत्ररूप में शब्द अचिन्त्य महिमशील है। शब्द-कुबेर
शब्दकोश के धनी विरले व्यक्ति होते हैं। बहुत-से तो एक-एक शब्द के लिए तरसते हैं। इस प्रकार कुछ व्यक्ति शब्दों की उपासना करते हैं और कुछ व्यक्तियों की उपासना के लिए शब्द स्वयं प्रस्तुत होते रहते हैं। जैसे महाप्रभावी तपस्वियों के चरणस्पर्श का सभी को तुरन्त अवसर नहीं मिलता, उसी प्रकार समर्थ शब्द-ध्वनियों को अपनी विशाल शब्द-संपत्ति में से सभी का प्रयोग कर पाना कठिन होता है। कवि धनञ्जय ने इसी आशय का एक श्लोक लिखते हुए कहा है कि धनञ्जय ने चुन-चुन कर शब्दों को कोषबद्ध कर दिया है उसके भय से पलायित शब्द तीनों लोक में दौड़ लगा रहे हैं । वेदवाणी के रूप में वे ब्रह्मा के पास चले गये, गंगाध्वनि का ब्याज करते हुए हिमालय पर शंकर के पास और क्षीरसमुद्र की कल्लोल-हुंकारों के मिष से केशव (विष्णु) के पास चले गये। धनञ्जय के भय से उत्पीडित शब्द फुकार कर रहे हैं,* मानो, तात्पर्य यह है
*'ब्रह्माणं समुपेत्य वेदनिनदव्याजात्तुषाराचलस्थानस्थवारमीश्वरं सुरनदीव्याजात्तथा केशवम् । अप्यम्भोनिधिशायिनं जलनिधे नोपदेशादहो फूत्कुर्वन्ति धनंजयस्य च भिया शब्दाः समुत्पीड़िताः ॥'
तीर्थंकर : जून १९७५/१२४
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