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________________ कि रामचरणों के सदा सम्मुख रहो और संसार से ३६ अर्थात् तीन और छह के अंकों के समान नित्य विमुख रहो। ये रति और विरति के अर्थ भाषा की ऊर्जा को, उसकी नित्यनवार्थ ग्रहण-समर्थ प्राणशक्ति को सूचित करते हैं। प्रकरण जाने बिना अनर्थ वैयाकरणों का एक प्रसिद्ध श्लोक है-कि शब्द का अर्थ करते समय व्याकरण, उपमान, कोष, आप्तवाक्य, व्यवहार, वाक्यशेष, विवृति और सिद्धपद का सामीप्य -इतने अनुबन्धों का ध्यान रखना चाहिये; अन्यथा अर्थ विपरीतार्थक भी हो सकता है। ‘अर्थ: प्रकरणं लिंगं वाक्यस्यान्यस्य सन्निधिः'-लिखते हुए एक अन्य श्लोक में भी शब्द-शक्ति का निरूपण किया गया है। प्रकरण जाने बिना शब्दमात्र से अर्थ का अभीष्ट दोहन नहीं किया जा सकता, इसका उदाहरण है 'सैन्धव' शब्द । सैन्धव के दो अर्थ हैं; अश्व तथा लवण । यदि वक्ता भोजन की थाली पर बैठा है और 'सैन्धव लाओ कहता है तो प्रकरण देखकर उस समय नमक लाना संगत है और वस्त्र धारणकर यात्रा के लिए सन्नद्ध है तो भृत्य को उचित है कि वह अश्व लाये । प्रकरण जाने बिना यदि वह दोनों अवसरों पर विपरीत अर्थ करे तो शब्द अपनी स्वाभाविक शक्ति का प्रतिपादन नहीं कर पायेगा । बहुत-से शब्द संस्कृत भाषा के तत्समरूपों से विकृत होकर विदेशी भाषाओं में घुलमिल गये हैं; जैसे डाटर (दुहितर्), होम (हर्म्य), क्वार्टर (कोटर), मैन (मनु), (नियर) निकट, लोकेट (लोकित), श्री (त्रि), डोर (द्वार) इत्यादि । इसी प्रकार विदेशी भाषाओं के रूप भी 'भारतीय भाषाओं में रच-पच गये हैं । जिह्वा में : अमृत भी, विष भी __ ये शब्द रूप, रस, गन्ध, वर्ण युक्त हैं, पौद्गलिक हैं; परन्तु पुद्गलपर्यायी होने पर भी इनकी स्थिति महत्त्वपूर्ण है। अपराजित मंत्र ‘णमोकार' शब्दरूप है, भगवान् के स्तुतिपद शब्दों की सोद्देश्य रचना हैं । आशीर्वाद और अभिवादन का शिष्टाचार शब्द-माध्यम से पूरणीय है। परिवार के वात्सल्य अंग शब्द-सहयोग से निष्पन्न होते हैं। पत्नी, माता, पुत्री आदि शब्द न होते तो पारिवारिक सम्बन्धों की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती। आगम-शास्त्र कुछ शब्दों के ही अर्थानुगामी विन्यास हैं। विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों की संज्ञाएँ शब्दबद्ध हैं। शब्दों का सावधानी से चयन कर हम दूसरों के मुख पर स्मित के फूल खिला सकते हैं और अवमानना के शब्दों से नेत्रों में अग्नि-ज्वाला का अविर्भाव भी कर सकते हैं। कतिपय अवसरप्रयुक्त शब्द जन्मभर के लिए मैत्री में बाँध लेते हैं और दुष्प्रयुक्त होने पर बैरविरोध उत्पन्न कर सकते हैं । इस प्रकार अमृत और विष जिह्वा में बसे हुए हैं। जिसके पास मधर भाषा है, मीठी बोली है, वह पशु-पक्षी भी मनुष्य को प्रिय लगता है। यह जानकर मधुरवाक् की शक्ति बढ़ानी चाहिये । जो सदैव स्मितपूर्वक बोलता है, उसके सभी मित्र बन जाते हैं। श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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