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और अपने कौटुम्बिक आयामों की विस्तृति के साथ भूमण्डल पर फैलता गया । वह मूलभाषा उनके साथ विश्व में फैल गयी और दीर्घकाल के अनन्तर उन-उन परिवारों के देश, काल, संस्कार तथा परिस्थितियों के परिवेश को स्वीकार कर परिवर्तित होती गयी। जैसे आज के भूगर्भ-विशारद पृथ्वी की गहराइयों का उत्खनन कर प्राप्त वस्तुओं से प्राचीन इतिहास का पता लगा रहे हैं और टूटी शृंखला की ऐतिहासिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक परम्पराएँ जोड़ रहे हैं, उसी प्रकार भाषा-विज्ञान के आचार्य भी बनते, बदलते, घिसते, घिसटते, खुरदरे, चौकोर और लम्बोतर होते शब्दों की मूल आकृति को जानने के लिए कृतोद्यम हैं। उन्हें इस बात में सफलता भी मिली है। संस्कृत का ऋण
प्राकृत, पाली, अपभ्रंश, मागधी, अर्धमागधी, हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि भारत की प्रादेशिक भाषाओं में संस्कृत भाषा के तद्भवरूपों की प्रचुरता है और विदेशी भाषाओं में भी संस्कृत के सहस्रों-सहस्र शब्द विद्यमान हैं। संस्कृत की व्याकरण-सम्मत प्रक्रिया आज भी उनमें प्राप्त है । यद्यपि उन-उन देशी-विदेशी भाषाओं के साहित्य अपने स्वतन्त्र मौलिक चिन्तन के साथ लिखे गये हैं तथापि उनका शब्द-विधान संस्कृत का ऋणी है । प्रकृति-प्रत्ययों की शैली ने संस्कृत को जो उर्वरता की पुष्कल क्षमता प्रदान की है, वह अदभुत है । शब्द-निर्माणशक्ति की साभिप्राय प्रक्रिया संस्कृत व्याकरण को प्राप्त है। सिद्ध है कि भारतीय तथा भारतीयों से इतर भाषाओं को संस्कृत ने पर्याप्त जीवन दिया है। आज राष्ट्रभाषा पद पर विराजमान हिन्दी अपने को संस्कृत से विश्व-भाषाओं की तुलना में सर्वाधिक सम्पन्न कर सकती है। संस्कृत भाषा की शब्द-निर्माण-शक्ति की एक झलक यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। वस्तु-विज्ञान के इतिहास में नया अध्याय
शब्द-निर्माण करते हुए उन-उन निर्माताओं का ध्यान वस्तु के गुण, स्वाद, आकृति, स्वभाव, वंश, स्थान, प्रकृति इत्यादि अनेकांगों पर गया और फलत: उन्होंने जो शब्द-रचना की, वह वस्तु-विज्ञान के इतिहास में आज भी अपूर्व है तथा प्राचीनों की शोध-मनीषिता को बताती है । गुण के आधार पर निर्मित शब्द 'धात्री' है। धात्री आँवले को कहते हैं। धात्री का अन्य अर्थ धाय (उपमाता) है। माता के अभाव में जो शिशु को अपना स्तन्य पिलाकर जीवन-दान करती है उसे धात्री कहते हैं । आँवला माँ के स्तन्य का विकल्प ही है, उतना ही शक्तिदाता एवं पोषक है इस गुणानुसन्धान के बाद आयुर्वेद के मनीषियों ने आमलकी को 'धात्री' कहा । स्वादपरक नामों में 'मधुयष्टि' जिसे मुलैठी कहते हैं, प्रसिद्ध है। ‘मधुयष्टि' का अर्थ है, मीठी लकड़ी; और इस नाम से उसे कोई भी पहचान सकता है। 'मण्डूकपर्णी' तथा 'कृष्णाक्षी' क्रमश: मंजिष्ठा तथा गुंजा (चिर्मी) को कहते हैं।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/११९
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