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परिशिष्ट (५)
श्रीम.राजेन्द्रसूरि के पद
१. सद्गुरु ने बाण मारा सद्गुरु ने बाण मारा, मिथ्या भरम विदारा रे
ब्रह्म एक छ लक्षण लक्षित, द्रव्य अनन्त निहारा । सर्व उपाधि से वर्जित शिव ही, विष्णु ज्ञान विस्तारा रे ।। ईश्वर सकल उपाधि निवारी, सिद्ध अचल अविकारा। शिव शक्ति जिनवाणी संभारी, रुद्र है करम संहारा रे ।। अल्ला आतम आपहि देखो, राम आतम रमनारा। कर्मजीत जिनराज प्रकासे, नयथी सकल विचारा रे। स्यादवाद सर्वांगी जाणो, तीरथ तारण हारा। मोक्ष साधक ते साधु समझो, सत्य बोल मुनि धारा रे ।। शुभ योगे ते योगी, जति इन्द्रि जीतारा । संवर रक्षक सो संवेगी, भगत जैन भजनारा रे।। ग्रन्थ रहित निर्ग्रन्थ कहीजे, फकीर फिकर फकनारा। ज्ञान-वास में वसे संन्यासी, पण्डित पाप निवारा रे ॥ सत्-चित्-आनन्द रूप निवासी, परम हंस पदवारा। 'सूरिराजेन्द्र' सो केवली सच्चा, आतम जास उजारा रे ।
२. अवधू आतमज्ञान में रहना अवधू आतम ज्ञान में रहना, किसी कुं कुछ नहीं कहना।
आतम ज्ञान रमणता संगी, जाने सब मत जंगी। परब भाव लहे न घट अन्तर, देखे पक्ष दुरंगी। सोग संताप रोग सब नासे, अविन्यासी अविकारी। तेरा मेरा कछ, नहीं ताने, भंगे भवभव भारी॥ अलख अनोपम रूप निरंजन, ध्यान हिये बिच धरना। दृष्टि राग तजी निज निश्चय, अनुभव ज्ञान कुं वरना ।। तस्कर एक सुभट बहुसंगी, अति उद्भट जग लूंसी। ताकुं घर अन्दर घुसने की, चोकसी रखना हूँसी। एक कुं छोड़के एक कुं धारे, बारे तृष्णा सुसंगी। 'सूरिराजेन्द्र' ना वाक्य विचारी, रहिये नित्य सुरंगी।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/११३
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