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________________ परिशिष्ट (४) : "तीनथुई' सिद्धान्त का परिचय जिसे सामान्य भाषा में “तीनथुई" कहा जाता है, संस्कृत में उसके लिए “त्रिस्तुतिक" शब्द है। वस्तुतः “तीनथुई" त्रिस्तुतिक" का वंशधर है. उसीका भाषिक रूपान्तर है। “थुई” “स्तुति" को कहते हैं, तदनुसार जिस उपासना-समुदाय में चैत्यवन्दना के लिए तीन स्तुतियों के बोलने की व्यवस्था है, वह “तीनथुई" कहलाता है। ये तीन स्तुतियाँ हैं : जिनस्तुति, सर्वजिनस्तुति, जिनागम-स्तुति । आगम में “चैत्य" के दो अर्थ किये गये हैं : जिन-बिम्ब, जिन-मन्दिर । वन्दना की व्यवस्था के अनुसार मन्दिरों की संख्या कम होने पर श्रावक को प्रत्येक में तीन थुइयाँ बोलनी चाहिये, किन्तु यदि तीर्थवन्दना में चैत्य-संख्या अधिक हो तो वहाँ क्रमशः एक-एक थुई बोलकर वन्दना करनी चाहिये। संभवतः दोहरावटों से बचने और समय कम लगे, इसलिए यह व्यवस्था की गयी है। माना जाता है कि इस समुदाय का उदय बहुदेववाद से उत्पन्न विकृतियों, अराजकताओं और निरंकुश वन्दना-व्यवस्था को निर्दोष बनाने और नियन्त्रित करने के लिए विक्रम की १३ वीं सदी में हुआ था। इसने सांस्कृतिक धरातल पर श्रावकीय चेतना का परिष्कार किया और उसे सम्यक्त्व के चूके हुए लक्ष्य पर सुस्थिर किया। वस्तुतः जैनधर्म में जिस गुणात्मक वन्दना का प्रतिपादन है, 'तीनयुई' समुदाय ने उस पर ध्यान तो दिया किन्तु फिर भी जिस अविचलता और कठोरता के साथ उसका परिपालन होना था, नहीं हो सका; फलतः चौथी थुई' बहिष्कृत तो हुई किन्तु आन्दोलन की जो मूल भावना थी उसका पूरा-पूरा विकास नहीं हो सका, क्योंकि जैनधर्म के अनुसार अन्य देवीदेवताओं की वन्दना बहुधा सांसारिक उद्देश्यों के लिए ही की जाती है, किन्तु जिन-आराधना का लक्ष्य आत्मोदय या आत्मोन्नति के अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता। इस दृष्टि से “तीनथुई” समुदाय की वन्दना-पद्धति को निर्मलीकरण का श्रेय दिया जाना चाहिये। इतिहास की नजर में “तीनथुई" समुदाय समय की एक सुधारवादी करवट थी, जिसने यथासमय अपने कर्तव्य-कर्म को निभाया; बीच में जो शिथिलता आयी उसका श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ने निरसन किया और उसमें फिर से प्राण फूंके। प्राचीनता की दृष्टि से इसे विक्रम की १३ वीं शताब्दी का माना जाता है । प्रमाण में तत्कालीन महत्त्वपूर्ण कृतियों से उदाहरण दिये गये हैं । संक्षेप में 'तीनथुई' समुदाय और सिद्धा त की भावना साफसुथरी है, प्रश्न मात्र इतना ही है कि इसे श्रावकीय और साधुई जीवन में प्रकट कैसे किया जाए? आज की पेचीदा सांस्कृतिक स्थिति में यह समस्या और अधिक विषम दिखायी देती है। तीर्थकर : जून १९७५/११२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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