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३. निन्दक तुं मत मरजे रे
निन्दक तुं मत मरजे रे, म्हारी निन्दा करेगा कोन । निन्दक नेढ़ो राख जो रे, आंगण कोट चणाय । विन साबू पाणी बन मेरो, कर्म मेल मिट जाय ।। भरी सभा में निन्दक बेठो, चित्त निन्दा में जाय । ज्ञान ध्यान तो कुछ नहीं जाने, कुबद हीया के माय ॥ मस्तक मेल उतारना रे, दे दे हाथे जोर । निन्दक उतारे जीभसुं कांइ, जाणे रलियारो ढोर ।
घोबी धोबे लूगड़ा रे, निन्दक धोबे भार हमारा ले लिया कांई, ज्युं वणझारा निन्दक तुं मर जावसी रे, ज्युं पाणी में 'सूरि राजेन्द्र' की सीखड़ी रे, दूजो निन्दा करेगा कोण ।।
लूण ।
४. श्रावक लक्षण ए नहीं
खाये पीये सुख सुइ रहे, डील में बन रह्या सेठां रे । पोसह सामायिकरी विरियाँ, गलीयार थइने बेटा रे ।। श्रावक लक्षण ए नहीं ।
घसमसता जिन दरसण करवा, आवे भीडी कचोटा रे । आसपास नारी निरखतां भाव मांहिला खोटा रे । नहीं ।
मुगति धनने छोड़ीने, छोकरा छोकरी कारणे,
श्रावक लक्षण ए मागे धान धन अरज करे बड़ी
श्रावक लक्षण ए
तीर्थंकर : जून १९७५ / ११४
मेल ।
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बेल ॥
सुणवा धरमना कारणे, आवे विकथा मांडे रे । रसिक कथाने सांभली, वैराग्य भाव ने छांडे रे । श्रावक लक्षण ए नहीं ॥ जो शुद्ध करणी आदरी, 'सूरिराजेन्द्र' ने ध्यासी रे । मेघ वायु परे कर्म नो, नाश करी शिव जासी रे । लक्षण एज नही ॥
श्रावक
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धूल रे । भूल रे ।
नहीं ॥
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