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________________ साहित्यष श्रीमद् राजेन्द्रसूरि मदनलाल जोशी पुण्यमयी भारत भूमि सनातन काल से ऐसे साधनाशील सत्पुरुषों को जन्म देती आयी है, जिन्होंने समय-समय पर अपने तपःपूत आचरण द्वारा न केवल भारत का अपितु सम्पूर्ण विश्व का कल्याणमय मार्गदर्शन किया है । यही कारण है कि यहाँ त्याग, तपस्या, सत्य, अहिंसा, ज्ञान, कर्म, भक्ति, दया एवं औदार्य आदि सत्तत्व, ऐसे ही महान् साधकों एवं तपस्वियों के माध्यम से इस प्रकार पल्लवित एवं सुफलित हुए हैं कि जिनके शाश्वत प्रकाश में नैष्ठिक मानव जीवन का सही लक्ष्य प्राप्त करने में अपूर्व सफल रहा है । 'अभिधान राजेन्द्र कोश' जैसे विश्व-कोशके रचयिता जैनाचार्य श्रीमद्राजेन्द्रसूरीश्वरजी इसी भारत भूमि के इस युग के ऐसे महान् साधक एवं तपोनिष्ठ आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अपनी नैष्ठिक साधना तथा आत्मोन्मुख आराधना के द्वारा संयम के मार्ग पर अनवरत चलते हुए 'चरैवेति चरैवेति' सिद्धान्त को आत्मसात् कर त्याग, तपस्यादि सत्तत्वों को जिस रूप में सिञ्चित किया, आज भी उनका दर्शन आत्मदर्शन की ओर प्रेरित करने की पूर्ण क्षमता रखता है । राजस्थान की वीरप्रसू भूमि भरतपुर में विक्रम संवत् १८८३, पौष शुक्ला सप्तमी, गुरुवार को मङ्गलमय मुहूर्त में जन्म लेकर असमय में ही माता-पिता से वंचित हो, अपनी ऐकान्तिक स्थिति में जिस बालक के मानस पटल पर विवेकजन्य चिन्तन का ऐसा सूर्योदय हुआ कि जिसके पावन प्रकाश में सहसा उसने सुना कि "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत" - उठो, जागो एवं सत्तत्वों को प्राप्त कर ज्ञान की अराधना करो। फलतः शनैः शनैः उसे इस नश्वर संसार की क्षणभंगुरता एवं असारता का आभास होने लगा । परिणाम यह हुआ कि जिस तारुण्य के प्रथम सोपान पर पाँव रखकर मनुष्य गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है, उसी तरुणाई में अपनी २२ वर्ष की आयु में इस नवयुवक ने सांसारिक भव-पाश से सर्वथा मुक्त होकर वि. सं. १९०४ वैशाख शुक्ल पंचमी को तत्कालीन आचार्य श्री प्रमोदसूरिजी के ज्येष्ठ गुरुभ्राता श्री हेमविजयजी के करकमलों से यतिदीक्षा ग्रहण की एवं "रत्नविजय" के रूप में नवीन किन्तु सदादर्शमय पवित्र पन्थ का पथिक बना दिया जो आगे चलकर श्री राजेन्द्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुआ । यति-अवस्था में रहते हुए थोड़े ही समय में आपने संस्कृत - प्राकृत के विविध ग्रन्थों के अध्ययन के साथ छन्द, व्याकरण, ज्योतिष, न्याय, निरुक्त एवं अलंकारादि विषयों का भी सुचारु अध्ययन किया । तापश्चात् तत्कालीन श्रीपूज्य देवेन्द्रसूरि के समीप रहकर आप विशिष्टरूप से जैनागमों की विशद विवेचना के साथ आराधना करने लगे । तीर्थंकर : जून १९७५ / १०० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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