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श्री देवेन्द्रसूरि के पश्चात् उनके पट्ट पर उन्हीं के शिष्य श्री धोरविजयजी धरणेन्द्रसूरि के नाम से आसीन हुए, जिनके समीप आप आरम्भ से ही रहा करते थे, किन्तु एक दिन वि. सं. १९२३ में जब श्री धरणेन्द्रसूरि का चातुर्मास घाणेराव (राजस्थान) में था, तब शिथिलाचार को देखकर आप वहाँ से सीधे आहोर-मारवाड़ आ गये, जहाँ आपके गुरु श्री प्रमोदसूरिजी ने आप में सच्चे त्याग एवं संयम के साथ पवित्र साधुत्व के दर्शन कर, साथ ही आपकी विद्वत्ता से प्रभावित हो, आपको 'सूरिपद' प्रदान करके स्वतन्त्र रूप से श्रीपूज्य बना दिया। इस प्रकार श्रीपूज्य जैसे पद को पाकर भी आप पूर्णतया आश्वस्त नहीं हो गये एवं वि. सं. १९२४ के अपने जावरा के चातुर्मास में आत्म-चिन्तन करते हुए एक दिन जावरा नगर के बाहर एक वट-वृक्ष के नीचे श्रीपूज्य के अनुरूप किन्तु साधुत्व के विपरीत आडम्बर के रूप में जितने भी अलंकार थे (पालखी, छत्र, चामर, छड़ी, गोटा आदि) सबका परित्याग कर दिया एवं इस प्रकार परम्परागत शैथिल्य प्रवृत्ति का समूलोच्छेदन करते हुए आपने क्रियोद्धार किया। यहीं से आप श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। (जावरा के इस क्रियोद्धार-स्थल वटवृक्ष के समीप 'श्री राजेन्द्रसूरि स्मृति-मन्दिर' के रूप में भव्य स्मारक का निर्माण हो गया है जिसकी प्रतिष्ठा वर्तमानाचार्य श्रीमद्विजयविद्याचन्द्रसूरिजी के द्वारा गत मार्गशीर्ष शु. पंचमी वि. सं. २०३० को सम्पन्न हो चुकी है।)
ऐसे परम त्यागी, आदर्श संयमी, सुदृढ़ महाव्रती एवं प्रखर प्रतिभाशाली, प्रकाण्ड विद्वान जैनाचार्य श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि का वर्चस्वशील व्यक्तित्व एवं विद्वज्जनाराध्य विशिष्ट वैदुष्य समुद्र के समान अतल है, जिनका वर्णन मात्र शब्दों में सर्वथा असम्भव ही है, पुनरपि उनके द्वारा रचित साहित्य का यथामति यत्किञ्चिद्दर्शन करने के उपरान्त अन्तःप्रसूत जिन भावों ने प्रेरणा प्रदान की, उसीके फलस्वरूप यहाँ कतिपय शब्द-सुमन समर्पित करने का प्रयास मात्र किया जा
श्रीमद् राजेन्द्रसूरि वस्तुतः इस युग के महान् क्रान्तिकारी एवं युगस्रष्टा आचार्य होने के साथ ही प्राकृत एवं संस्कृत के तलस्पर्शी विशिष्ट विद्वान् तथा अप्रतिम साहित्यर्षि हो गये हैं। यहाँ मैं आचार्यप्रवर के उत्कृष्ट साधनाशील साहित्यिक जीवन के सम्बन्ध में ही कुछ निवेदन करने का प्रयास कर रहा हूँ, जिससे पाठक यह जान सकें कि अपने साध्वाचार के समस्त नियमों का सांगोपांग परिपालन करते हुए अपने गच्छ के दायित्व का पूर्णतया निर्वाह करने के साथ ही श्री राजेन्द्र सूरिजी ने किस प्रकार साहित्य की सेवा करते हुए अपने साधनाशील जीवन में अजित ज्ञान का 'बहुजनहिताय, बहुजन सुखाय' सदुपयोग किया है।
- वैसे परम विद्वान् आचार्यश्री ने अपने जीवन में लगभग ६१ ग्रन्थों की रचना की है, जो विविध दृष्टिकोणों से स्वयं में महत्वपूर्ण सिद्ध हुए हैं। अपने इन ६१ ग्रन्थों में आपके द्वारा रचित 'अभिधान राजेन्द्र कोश' विश्व-साहित्य की वह
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१०१
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