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पाँच ज्ञानप्रकारों की नयी उपपत्ति :
किसी भी विचारी, विवेकी, पक्षपातरहित और नीतिमूल्यों की कद्र करनेवाले मनुष्य को ये पाँच ज्ञानप्रकार जीवनभर दीपस्तंभ की तरह मार्गदर्शक हो सकते हैं । इस दुनिया में प्रवेश पाते ही, किंबहुना गर्भावस्था से ही म्मुष्य की ज्ञानप्रक्रिया का भी आरम्भ हो जाता है । बाल्यावस्था में विशेषत: पाँच वर्षतक ऐन्द्रिय ज्ञान को स्वीकारनेकी, व्यवस्था लगाने की और प्रतिक्रिया देने की प्रवृत्ति अधिक प्रबलरूप से होती है । शालेय-महाविद्यालयीन शिक्षण में मुख्यत: श्रुतज्ञान को अवसर दिया जाता है । अन्दाजन ३०-४० सालतक ज्ञान के विशाल क्षितिज और व्यक्तिगत ज्ञानसम्पादन की अवधि' याने मर्यादा को हम जानने लगते हैं । लगभग ५०-६० की उम्र में अपेक्षित है कि हम अन्तर्मुख होकर अपने ही मन:पर्यायोंपर ध्यान केन्द्रित करें । ६०-७० के बाद चाहे आत्मिक उन्नति में हो, चाहे सामाजिक क्षेत्र में हो, चाहे ज्ञानाराधना में हो या कलासाधना में - हमें आवश्यक है कि केवल' यने ‘एकत्व' की भावना की पुष्टि करते करते खुद तय किया हुआ रास्ता आखिरतक निष्ठापूर्वक अपनाते रहें।
अगर हम चाहते हैं तो ज्ञान के ये पाँच प्रकार हमारी जीवनशैली को उजागर कर सकते हैं और शायद यही सही मायने में 'सम्यक्त्व' का अर्थ है ।
सन्दर्भ-सूचि १) सर्वार्थसिद्धि, प्रथम अध्याय, पृ.८, परिच्छेद ६ २) उत्तराध्ययन, केशि-गौतमीय अध्ययन २३.२५ ३) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थसूत्र १.१ ४) तत् प्रमाणे । आद्ये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् । तत्त्वार्थसूत्र १०-१२ ५) तत्त्वार्थसूत्र १.१५-१९ ६) इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम् । ७) स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ।
शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्द्योतवन्तश्च ।। तत्त्वार्थसूत्र ५.२३-२४ ८) नन्दीसूत्र, सूत्र ७७ ९) नन्दीसूत्र, सूत्र ७३-७४ १०) नन्दीसूत्र, सूत्र ८० ११) नन्दीसूत्र, सूत्र ८१ १२) द्विविधोऽवधिः ।
तत्र भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् ।
यथोक्तनिमित्त: षड्विकल्प: शेषाणाम् ।। तत्त्वार्थसूत्र २१-२३ १३) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार ५ १४) ज्ञाताधर्मकथा, श्रुतस्कन्ध १, अध्ययन १४, तेतलिपुत्र-पोट्टिलदेव संवाद १५) विपाकसूत्र, श्रुतस्कन्ध २, अध्ययन १, सुबाहू, सूत्र २३ १६) सर्वार्थसिद्धि, प्रथम अध्याय, पृ.४८-७२, परिच्छेद ३४-१६१ १७) 'The World of Tiryancas', A paper published in 'The Collected Papers in Prakrit & Jainology' (Vol.II), Dr. Nalini Joshi,
Seth H.N.Jain Chair, Firodia Publications, 2012 १८) ऋजुविपुलमती मनःपर्याय ।
विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः । तत्त्वार्थसूत्र २४-२५ १९) सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । तत्त्वार्थसूत्र १.३० २०) सूत्रकृतांग, श्रुतस्कन्ध २, अध्याय ५, गाथा १५ २१) मतिश्रुताऽवधयो विपर्ययश्च । तत्त्वार्थसूत्र १.३२ २२) नन्दीसूत्र, सूत्र ४९, उत्तराध्ययन २३) पातञ्जलयोगसूत्र, विभूतिपाद, सूत्र १९ ; विभूतिपाद, सूत्र ३६ २४) सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् । तत्त्वार्थसूत्र १.३३ २५) तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य ।
णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ । अष्टपाहुड ५.५३