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उत्तरवर्ती आचार्य इस लौकिक ज्ञान को भी ज्यादा से ज्यादा पुष्ट करें ।
___ * औपचारिक ज्ञान एवं व्यवहार में जन्मजात बुद्धि, शिक्षण से प्राप्त बुद्धि, अभ्यासप्राप्त कर्मज कौशल्य एवं वय-परिणाम के साथ प्राप्त किये अनुभव इन चारों का समावेश 'चतुर्विध बुद्धि' के अन्तर्गत नायाधम्मकहा जैसे आगमग्रन्थ में और उपदेशपद जैसे उत्तरवर्ती ग्रन्थ में पाया जाता है । तत्त्वार्थ और उस के व्याख्याकारों ने पाँचज्ञानों में चतुर्विध बुद्धि की व्यवस्था नहीं की है । इसके सम्बन्ध में नन्दीकार का प्रयत्न स्तुत्य है।
* जैन परम्परा में धर्मध्यान के चार प्रकार बताएँ हैं । वे हैं - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ।२७ इन चारों नामों पर विशेष विचार करें, तो विज्ञान की आराधना के लिए उपयुक्त सभी घटकों की उपस्थिति इन चारों ध्यानों में पायी जाती है । विशिष्ट क्षेत्र में पूर्वकालीन वैज्ञानिकों के संशोधनों का संकलन 'आज्ञाविचय' में अपेक्षित है । पूर्वधारणा और नूतनधारणा के मानने पर उपस्थित होनेवाले दोषयुक्त परिणामों क चिन्तन ‘अपायविचय' है । एक वैज्ञानिक भी hypothesis प्रस्थापित करने के लिए यही करता है । संशोधन के नये तरीके अपनाने से परिणामस्वरूप कौनसे निष्कर्ष आ सकते हैं, इनका अन्दाज करना और प्रयोग करना ‘विपाकवचय' है । लोकस्वरूप का विचार करना संस्थानविचय' है । हर-एक वैज्ञानिक चाहें किसी भी ज्ञानशाखा में संशोधन करें अन्तिमत: वह लोकस्वरूप का चिन्तन ही है। ____ विज्ञान की आराधना के लिए शंका-कांक्षा-चिकित्सा-प्रयोगशीलता-शंकासमाधान-प्रश्नोत्तर और समीक्षा आदि सबकी आवश्यकता है । इन सबको हम scientific research methodology भी कह सकते हैं । अर्धमागधी आगमों में से कुछ आगमों में उपरोक्त प्रकार की प्रयोगशीलता पायी जाती है - जैसे नायाधम्मकहा के परिखादृष्टान्त में पानी के शुद्धीकरण का प्रयोग कर के 'द्रव्य-गुण-पर्याय' सिद्धान्त की स्थापना की है ।२८ आत्मा का स्वरूप जानने के लिए राजा प्रदेशी और केशिकुमार श्रमण इनकी उपस्थिति में किये गये प्रत्यक्ष प्रयोगों का उल्लेख राजप्रश्नीय में शब्दबद्ध किया है ।२९
प्रारम्भिक ग्रीक तत्त्वज्ञान जिस प्रकार विज्ञान में फलित हुआ उसी प्रकार की सम्भावनाएँ कई आगमों में दिखाई देती हैं । लेकिन काल के ओघ में जैन परम्परा में प्रयोगशीलता कम होने लगी और आचारप्रधानता एवं आध्यात्मिकता बढने लगी । परिणामवश जीवनोपयोगी लाक्षणिक साहित्य की निर्मिति बहुत ही कम मात्रा में हुई
ज्ञानमीमांसा से सम्बन्धित विचार केवल नमूने के तौरपर दिये हैं । और भी कौनकौनसी दृष्टि से ज्ञानमीमांस हो सकती है, ये शोधनिबन्ध के उपसंहार में दिग्दर्शित करते हैं ।
उपसंहार एवं भावी संशोधन :
जैन दर्शन के पाँच प्रकार के ज्ञान, जैन ज्ञानमीमांसा में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । विविध दृष्टिकोण अपनाकर इसकी चर्चा हो सकती है । ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ज्ञानमीमांसा के परिवर्तन एवं परिवर्धन अंकित किये जा सकते हैं । सामाजिक एवं स्त्रीवादी दृष्टिकोण अपनाकर कुछ नये मुद्दे उपस्थित हो सकते हैं । तत्त्वमीमांसा का प्रारूप ध्यानमें रखा तो अलग चित्र पाया जाता है । जैनियों की ज्ञानचर्चा में आध्यात्मिकता की दृष्टि तो है ही, लेकिन उनमें से कौनसे मद्दे नीतिमूल्यों के दायरे में आ सकते हैं और कौनसे सिर्फ आध्यात्मिक हैं, इसका लेखजोखा भी प्रस्तुत किया जा सकता है । ज्ञानविज्ञान के स्फोट के इस तीसरे सहस्रक में इन पाँच ज्ञानप्रकारों की आधुनिक चिकित्सा की जा सकती है।
हमें मालूम है कि इस शोधनिबन्ध में कुछ मुद्दों को स्पर्श किया है, कुछ को नहीं कर सके हैं । जैसे से विषयकी गहराई में चलते गये वैसे वैसे लगा कि यह तो एक स्वतन्त्र प्रॉजेक्ट हो सकता है । आशा है कि येनिरीक्षण समग्र-चर्चा की कुछ दिशाएँ तय करने में कामयाब होंगे ।