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________________ अनुसन्धान 34 3. 'केसरि-दोत्तडीनाओ' (गा. 2397, पृ. 219) 4. 'फोडावियं च जम्हा बिल्लं बिल्लेण बुद्धीए' (गा. 5629, पृ. 513) 5. हमारी भाषाओं में एक मुहावरा बहुत प्रसिद्ध है : "करमे-धरमे" 'करमे- धरमे' करना पड़ा; 'करमे-धरमे' हो गया, इत्यादि / यह मुहावरा यहाँ बार-बार प्रयोजा गया है / यथा 'कम्मधम्मजोगा' (गा. 360, 1193, 1558, 1796, 3086, 6710, 7765 वगैरह)। पृ. 668-69 पर संक्षिप्त किन्तु विविधछन्दोमण्डित वसन्तऋतुवर्णन (गा. 7325-29) भी द्रष्टव्य है / (8) __बहुत सारे विशिष्ट शब्दप्रयोग इस में मिलते हैं, जो अभ्यासियों के लिये रसप्रद है / उदाहरणार्थ : __ मन्दिर की प्रदक्षिणा (परिक्रमा) के परिसर को भ्रमी (भ्रमन्ती) (गुजराती- 'भमती' कहते हैं / उसके लिये यहा 'भवंतिय' शब्द (गा. 5269, पृ. 481) का प्रयोग मिलता है / दादरा (सीडी) के लिए 'दद्दर' (गा, 4845, पृ. 442) का प्रयोग मिलता है / 'भरवसो' शब्द 'भरोसा' के अर्थ में प्राप्त है (5851, पृ. 534) 'खडप्फडा' का प्रयोग किया गया है (गा. 5859, पृ. 533) / 'पिंढारा' शब्द हमारे यहाँ यह प्रकारकी ठगजाति के लिये प्रयोजाता जाता है / उसका प्रयोग यहाँ 'पिंडारा' रूप से मिल रहा है (गा. 6679, पृ. 609) / 'लड्डु' शब्द भी है, जो शायद 'लाड' वाचक है (गा. 8083, पृ. 737) / ऐसे और भी अनेक शब्दप्रयोग हैं, जो तज्ज्ञों के लिए ध्यानाई हैं। इन सभी शब्दों की सूचि बनाकर, यह लेख लिखने से पहले, भायाणी साहब को भेजकर उन से इसका विवरण पाने का मैंने सोचा था / किन्तु उनके दुःखद निधन से वह बात मन में ही रह गई / अन्य और भी रसप्रद शोध- सामग्री इस बृहत्काय कथाग्नन्थ में उपलब्ध हो सकती है। अभ्यासियों उसे प्रकाश में लाए ऐसी अभ्यर्थना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229385
Book TitleBhuvansundari Katha ki Vishishta bato ka Avalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size310 KB
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