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संभावनाएं बनती हैं। यदि दूसरे आदमी की शक्ति, पहले की अपेक्षा ज्यादा है, अथवा बराबर है, तब तो उसे खींचा नहीं जा सकेगा। इसके विपरीत, यदि दूसरे आदमी की शक्ति, पहले की अपेक्षा कम है, तो उसका मात्र उतना ही खिंचाव होगा जितनी कि उसकी भाक्ति में कमी रह गई।
इस उदाहरण द्वारा जीव और मोहनीय कर्म के पारस्परिक सम्बन्ध को ठीक तरह से समझा जा सकता है। मोहनीय कर्म में खींचने की भाक्ति मानना भी जरूरी है, और जीव में खिंचकर जाने की भाक्ति भी स्वीकार करनी पड़ेगी – तभी इनमें निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बन सकेगा। मिथ्यादृष्टि जीव मोहकर्म के खिंचाव की ओर जाना चाहता है, अतः उसकी स्वयं की शक्ति/पुरुषार्थ एवं मोहकर्म की विपाकशक्ति – ये दोनों मिलकर दुगुनी होकर एक ही दिशा में कार्य करते हैं। इसके विपरीत, सम्यग्दृष्टि जीव कर्मोदय के साथ नहीं बहता और उसका यथाशक्ति विरोध करता है - आत्म-स्वभाव का आश्रय लेता है – अतः कर्म का खिंचाव भी उसी अनुपात में कम हो जाता है। पुनश्च, शुद्धात्मभावना/साधना के द्वारा साधक जीव का आत्मबल जैसे-जैसे बढ़ता है, कर्मों की शक्ति भी वैसे-वैसे ही क्षीण होती जाती है।
$ २.२० 'जीवविपाकी' कर्मों की भावात्मक
व्याख्या – 'संस्कार' की भाषा में हम मन के द्वारा जो कुछ भी विचारते हैं, वाणी के द्वारा जो कुछ भी बोलते हैं, शरीर के द्वारा जो कुछ भी करते हैं - उस सभी में हमारे योग-उपयोग का जुड़ाव होने से, वह हमारा कर्म कहलाता है। वह कर्म, कार्य या परिणाम यद्यपि यथासमय