________________
समाप्त हो जाता है, तथापि वह हमारी चित्तभूमि पर अपनी एक 'छाप' छोड़ जाता है, अपना एक 'पदचिह्न छोड़ जाता है इसे ही 'संस्कार' नाम से पुकारा जाता है । चित्तभूमि पर ‘अंकित ́ इन संस्कारों में हमारे उक्त कार्य या परिणाम अप्रकट रूप से मौजूद रहते हैं, और यथोचित बाह्याभ्यन्तर निमित्तों का संयोग पाकर प्रकट या व्यक्त हो जाते हैं । संस्कारों के रूप में अव्यक्त पड़े हुए हमारे पूर्वकृत परिणामों की यह पुनर्व्यक्तता ही, कर्म-सिद्धान्त की भाषा में 'कर्मोदय' है । इस प्रकार, द्रव्यकर्म अन्य कुछ नहीं मात्र इस जीव के संस्कारों का प्रतिनिधित्व करते हैं; जैसे जीव के संस्कार, वैसे ही द्रव्यकर्म होते हैं ।
-
▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬
―
―
पूर्वसंचित संस्कारों का कुछ भाग कर्मोदय के फलरूप से व्यक्त होकर व्यय होता रहता है, किन्तु शेष भाग चित्त के कोष में सुरक्षित पड़ा रहता है। इस प्रकार, प्रत्येक जीव अपने पूर्व संस्कारों से प्रेरित होता रहता है। किसी विशेष पूर्वसंस्कार से प्रेरित होकर, यदि यह जीव पुनः पुनः तदनुरूप परिणमन करता रहता है, तो उस जाति का संस्कार और भी गहरा पड़ जाता है यही कर्म-सिद्धान्त की भाषा में उस जाति के कर्म के 'स्थिति और अनुभाग की तीव्रता का बढ़ना (उत्कर्शण)' है। अज्ञानी जीव किस प्रकार अपने अविद्यारूपी संस्कार को पुनः पुनः दृढ़ करता जाता है, इसका स्पष्ट वर्णन श्री पूज्यपाद स्वामी ने समाधिशतक में किया है :
"चूँकि बहिरात्मा इन्द्रियरूपी द्वारों से बाह्य पदार्थों के ग्रहण करने में प्रवृत्त हुआ आत्मज्ञान से पराङ्मुख होता है, इसलिये देह को ही आत्मा समझता है; मनुष्य देह में स्थित आत्मा को मनुष्य, और तिर्यंच देह में स्थित आत्मा को तिर्यंच, इत्यादि समझता है; अपने शरीर के समान दूसरे के शरीर को देखकर,